लोगबाग जमीनी चिंता से नहीं, बल्कि आसमानी चिंता से ज्यादा त्रस्त रहते हैं. उन्हें हरदम डर लगा रहता है कि आसमान में ठिया जमाए ग्रह कहीं उन से नाराज न हो जाएं. ऊपर बैठे 9 में से न जाने कब और कौन सा ग्रह उन से नाराज हो जाए और अच्छीभली जिंदगी में मुसीबत खड़ी कर दे. ग्रहों की नाराजगी बहुत महंगी पड़ती है. वे चाहें तो अच्छे पढ़ाकू विद्यार्थी को परीक्षा में फेल कर दें, अच्छीभली नौकरी छुड़वा दें, धंधे में नुकसान करवा दें या फिर दिवालिया ही बना दें. ज्यादा ही नाराज हो गए तो फिर बिस्तर से चिपका दें या हमेशा के लिए ही सुला दें.

इसलिए वे सालभर ग्रहों को शांत करने के लिए तरहतरह के जतन करतेफिरते हैं. वे धरती की परवा नहीं करते, जिस पर उन का शरीर टिका हुआ है और जिस पर वे दिनरात अत्याचार करते रहते हैं. आखिर ज्योतिषियों ने धरती का डर जो नहीं बताया है. उन की निगाह में ऊपर बैठे ग्रह ही सब के बौस हैं.

एक हैं जोशी. ये बताते हैं कि उन का असली सरनेम कभी ज्योतिषी था. दूसरों की जन्मकुंडली पढ़ना उन का खानदानी धंधा था. पता नहीं वे खुद की कुंडली नहीं समझ पाए या दूसरों से नहीं

पढ़ा पाए, इसलिए समय के साथ घिसतेघिसते जोशी हो गए. ये जोशीजी हरदम शोकमुद्रा लादे फिरते हैं क्योंकि आसमान में बैठा कोई न कोई ग्रह इन पर नाराज रहता है. इन दुखीराम पर मंगल कई बार नाराज हो चुका है.

बचपन के खेल का वाक्य ‘एक का पीछा साढ़े सात दाम’ इन के मंगल पर कभी लागू नहीं होता. इन का अंदाजा भी इतना सटीक है कि जरा सी छींक आई तो समझ जाते हैं कि शुक्र ग्रह फेवर में नहीं है और लग जाते हैं शुक्र ग्रह को खुश करने में. कभी उपवास, कभी अंगूठी तो कभी पूजापाठ. इन के सामने शनि का नाम भी ले लें तो मारे डर के पीले पड़ जाते हैं. इसलिए भूल कर भी शनिवार नहीं बोलते. कंप्यूटर में फीड किए शब्द की तरह या तो साफ सैटरडे कहते हैं या फिर रविवार के पहले का, शुक्रवार के बाद का दिन.

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