‘‘माली, यह तुम ने क्या किया? छाया में कहीं आलू होता है? इस से तो हलदी बो दी जाती तो कुछ हो भी जाती.’’

‘‘साहब का यही हुक्म था.’’

‘‘तुम्हारे साहब ठहरे शहरी आदमी. वह यह सब क्या जानें?’’

‘‘हम छोटे लोगों का बड़े लोगों के मुंह लगने से क्या फायदा, साहब? कहीं नौकरी पर ही बन आए तो…’’

‘‘फिर भी सही बात तो बतानी ही चाहिए थी.’’

‘‘आप ने साहब का गुस्सा नहीं देखा. बंगला क्या सारा जिला थर्राता है.’’

मैं ने सुबह बंगले के पीछे काम करते माली को टहलते हुए टोक दिया था. प्रतीक तो नाश्ते के बाद दफ्तर के कमरे में अपने मुलाकातियों से निबट रहा था.

मैं और प्रतीक बचपन के सहपाठी रहे थे. पढ़ाई के बाद वह प्रशासनिक सेवा में चला गया था. उस के गुस्से के आतंक की बात सुन कर मुझे कुछ अजीब सा लगा क्योंकि स्कूलकालिज के दिनों में उस की गणना बहुत शांत स्वभाव के लड़कों में की जाती थी.

कालिज की पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही मुझे असम के एक चायबागान में नौकरी मिल गई थी और उस के बाद से प्रतीक से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया था. 9 साल बाद मैं इस नौकरी से त्यागपत्र दे कर वापस आ गया और अपने गांव में ही खेती के अलावा कृषि से संबंधित व्यवसाय करने लगा.

जब मुझे प्रतीक का पता लगा तो मैं उसे पत्र लिखने से अपने को न रोक सका. उत्तर में उस ने पुरानी घनिष्ठता की भावना से याद करते हुए आग्रह किया कि मैं कुछ दिनों के लिए उस के पास आ कर अवश्य रहूं, लेकिन प्रतीक के पास आ कर तो मैं फंस सा गया हूं. आया था यह सोच कर कि मिल कर 2 दिन में लौट जाऊंगा. लेकिन आजकल करते- करते एक हफ्ते से अधिक हो चुका है. जब भी लौटने की चर्चा चलाता हूं तो प्रतीक कह उठता है, ‘‘अरे, अभी तो पूरी बातें भी नहीं हो पाई हैं तुझ से. तू तो देखता है कि काम के मारे दम मारने की

भी फुरसत नहीं मिलती. फिर तेरी कौन सी नौकरी है जो छुट्टी खत्म होने की तलवार लटक रही हो सिर पर. अभी कुछ ठहर. यहां तुझे क्या तकलीफ है?’’

तकलीफ तो मुझे वास्तव में यहां कोई नहीं है. हर प्रकार का आराम ही है. बड़ा बंगला है. बंगले में दफ्तर के कमरे से सटे एक अलग मेहमान वाले कमरे में मुझे टिकाया गया है. प्रतीक की पत्नी ललिता भी बड़ी शालीन स्वभाव की है. प्रतीक के आग्रह पर वह भी यदाकदा इसी बात पर जोर देती है, ‘‘भाई साहब, इन के साथ तो आप बचपन से रहे हैं लेकिन मैं ने तो आप को अभी देखा है. कुछ मेरा अधिकार भी तो बनता है. इस छोटी जगह में कौन आता है हमारे यहां रहने? जब आप आए हैं तो इतनी जल्दी जाने की बात मत कीजिए. आप की वजह से कुछ ढर्रा बदला है वरना रोज ही वही क्रम चलता रहता है.’’

रोज का एक जैसा क्रम तो मैं एक सप्ताह से बराबर देख रहा हूं. प्रात: 8 बजने से पहले नाश्ता. फिर घर पर आए मुलाकातियों से जूझना, तब कचहरी की दौड़. दोपहर 2 बजे भागादौड़ी में खाना, फिर कोई न कोई बैठक, जो शाम ढले ही निबटती है. फिर किसी समारोह में भाग लेने के लिए निकल जाना या किसी मिलने वाले का आ टपकना. रात को अवश्य आराम से बैठ कर भोजन किया जाता है. दूसरे दिन पुन: यही सिलसिला शुरू हो जाता है.

बंगले का स्तब्ध वातावरण भी किसी फौजी कैंप जैसा लगता है. हर वस्तु अपने स्थान पर व्यवस्थित. ‘जीहजूर’ या ‘जी सरकार’ की उबाऊ गूंज ही निरंतर कान छेदती रहती है. सारे चेहरे या तो कसे हुए हैं या सहमे हुए. यहां तक कि ललिता को भी मैं ने प्रतीक का मूड देख कर ही बात करते पाया. एक दिन मैं ने उस से कहा भी, ‘‘भाभीजी, आप अपनेआप को प्रतीक का अमला क्यों समझने लगी हैं?’’

‘‘क्या करूं, भाई साहब, इन का मूड देख कर ही बात करनी पड़ती है. भय लगा रहता है कि कहीं नौकरचाकरों या बच्चों के सामने ही लोई न उतार बैठें. इन का भी कुसूर नहीं है. हर वक्त ही तो कोई न कोई चिंता या जंजाल सिर पर सवार रहता है.’’

‘‘लेकिन यह तो अच्छी बात नहीं. आप का अपना अलग स्थान है. एकदम निजी और निराला.’’

‘‘आप नहीं समझेंगे, भाई साहब. दिन भर के थकेमांदे जब रात को ये बिस्तर पर गिरते हैं और पलक झपकते ही सो जाते हैं तो सचमुच ही बड़ी करुणा आती है मुझे. उस समय अपनी किसी परेशानी का रोना छेड़ना एक सोते बच्चे को जगाने जैसा अत्याचार लगता है.’’

करुणा तो मुझे मन ही मन इस महिला पर आ रही थी. लेकिन ललिता पुन: बोल पड़ी, ‘‘संसार में मुफ्त कुछ नहीं मिलता, भाई साहब. उच्च पद के लिए भी शायद कीमत चुकानी पड़ती है. कहीं न कहीं त्याग करना होता है.’’

‘‘क्षमा करें, लेकिन यह सब कर के आप प्रतीक की आदतें बिगाड़ रही हैं,’’ मुझे कहना ही पड़ा.

‘‘नहीं भाई साहब, मुझे बजाय संघर्ष के सामंजस्य का मार्ग सिखाया गया है. मेरी समझ में यही उपयुक्त है.’’

इस पूर्णविराम का मैं क्या उत्तर देता?

सुबह के नाश्ते के बाद मैं अपने कमरे में आ कर समाचारपत्र या कोई पुस्तक पढ़ने लगता और प्रतीक की मुलाकातें चालू हो जातीं. दोनों कमरों के बीच केवल एक परदे का अंतर होने के कारण मुझे अधिकांश बातचीत सुनने में कोई बाधा नहीं होती. विविध प्रकार की समस्याएं सुनने को मिलतीं. एक दिन शायद प्रतीक के दफ्तर का नाजिर कुछ रंगों के नमूने ले कर आया और उन्हें प्रतीक को दिखाते हुए बोला, ‘‘मेरी समझ में तो आप के कमरे के लिए हलका नीला रंग ही सब से अच्छा रहेगा.’’

‘‘तुम्हारी भी क्या गंवारू पसंद है. रिटायरिंग रूम में नीला रंग कितना वाहियात लगेगा. हलका पीला ठीक रहेगा.’’

‘‘जी, जो हुक्म. पीला तो और भी जंचेगा,’’ नाजिर हां में हां मिला कर चला गया.

इसी प्रकार एक दिन किसी गांव से आए मुलाकाती ने अपनी समस्या प्रस्तुत की, ‘‘साहब, लड़की का ब्याह है. चीनी मिल जाती तो कुछ मदद हो जाती.’’

‘‘जिला आपूर्ति अधिकारी के पास क्यों नहीं गए?’’

‘‘गया था, हुजूर. वह बोले कि 40 किलो से ज्यादा का परमिट वह नहीं दे सकते. लड़की की शादी में इतने से क्या होगा? उन्होंने बताया है कि ज्यादा का परमिट आप ही दे सकते हैं.’’

‘‘तब कितनी चाहिए?’’

‘‘एक बोरा भी मिल जाती तो कुछ काम चल जाता.’’

‘‘नहीं, एक बोरा तो नहीं, मैं 80 किलो लिख देता हूं. परमिट उसी दफ्तर से बनवा लेना.’’

‘‘जैसी सरकार की मर्जी,’’ अंतिम आदेश की आंच से अपनी मांग को सेंकता वह बिना कान खटकाए चला गया.

एक अन्य दिन कार्यालय के बड़े बाबू ने आ कर बताया, ‘‘साहब, कल रात त्रिलोकी बाबू गुजर गए.’’

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ. आज जब मैं दफ्तर पहुंचूं तो एक शोक सभा कर लेना और आधे दिन को दफ्तर बंद करने की घोषणा भी उसी वक्त कर दी जाएगी.’’

‘‘ठीक है, हुजूर,’’ और बड़े बाबू सलाम झुकाते चले गए.

शायद उस शाम प्रतीक को कहीं जाना भी नहीं था. रात को भोजन के समय मैं ने उसे कुरेदा, ‘‘आज सुबह तुम से कोई कह रहा था कि रात तुम्हारे दफ्तर के किसी बाबू की मृत्यु हो गई. मैं तो सोच रहा था कि शाम को तुम उस के घर संवेदना प्रकट करने जाओगे.’’

‘‘ऐसे मैं किसकिस के घर जाता फिरूंगा?’’ प्रतीक ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘‘खुशी के मौके पर एक बार न भी जाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन शोक के अवसर पर जाने से तुम्हारी सहृदयता की छाप ही पड़ती. लोगों में तुम्हारे प्रति सुभावना ही उत्पन्न होती.’’

‘‘मैं इस सब की चिंता नहीं करता. दिन भर वैसे ही क्या कम झंझट रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि तुम एक मशीनी मानव बनते जा रहे हो. हर व्यक्ति इनसान से इनसानियत की आशा करता है. संवेदना प्रकट करना उसी का तो एक रूप है.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैं हर किसी को देखते ही दबोच कर कच्चा चबा जाता हूं.’’

‘‘चबाओ चाहे नहीं, लेकिन अपने मिलने वालों से व्यवहार तो तुम्हारा एकदम रूखा होता है, यह तो इतने दिनों से तुम्हारे मुलाकाती लोगों से हुई बातचीत को सुन कर मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं. तुम्हारे माली तक की इतनी हिम्मत नहीं कि तुम्हें बता सके कि छाया में आलू पैदा नहीं होता.’’

मैं ने गौर किया कि इस बीच ललिता 2 बार अपनी प्लेट से सिर उठा कर हम लोगों की ओर सशंकित दृष्टि उठा चुकी थी. प्रतीक अपना मोर्चा संभाले ही रहा, ‘‘हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो लेकिन मैं अपने को बदल नहीं सकता.’’

‘‘यह कैसी जिद हुई? अगर तुम्हें लगता है कि कोई आदत सही नहीं है तो उसे छोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है.’’

कुछ देर सभी चुपचाप खाना खाते रहे और केवल प्लेटों पर चम्मचों के टकराने की ध्वनि ही होती रही.

मैं ने ही उसे पुन: छेड़ा, ‘‘अच्छा यह बता कि तुम लोग सिनेमा देखने कितने दिनों से नहीं गए?’’

‘‘याद नहीं कितने दिन हो गए. ललिता, तुम बताओ कब गए थे?’’

ललिता का जैसे साहस जाग्रत हो गया था. फौरन बोली, ‘‘आप दिनों की बात करते हो? यहां तो महीनों हो गए,’’ फिर वह मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘एक तो इस छोटे शहर में लेदे कर कुल जमा 2 सिनेमाघर हैं और उन में भी एकदम पुरानी और सड़ी फिल्में आती हैं. लेकिन कभी जाने की सोचो तो भी प्रोग्राम तो बन जाएगा, टिकट भी आ जाएंगे. सिनेमा के मैनेजर का फोन भी आ जाएगा कि जल्दी आ जाइए फिल्म शुरू होने वाली है. लेकिन तभी इन का कोई जरूरी काम आ टपकेगा. कभी जरूरी मीटिंग होने वाली होगी, तो कभी मंत्रीजी आ टपकेंगे. बस, सिनेमा जाना मुल्तवी. हार कर मुझे ही मैनेजर से कहना पड़ता है कि नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘आप बच्चों को ले कर अकेली क्यों नहीं चली जातीं?’’ मैं ने ललिता से कहा.

‘‘यह मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर, भाई साहब, यह छोटी जगह है. लोग कई तरह की बातें करने लगेंगे. व्यर्थ में बदनामी मोल लेने से क्या फायदा?’’

‘‘अच्छा, भाभीजी, तो इस बात पर आप कल ही सिनेमा चलने का प्रोग्राम बनाइए. मैं भी चलूंगा. क्यों, प्रतीक, फिर रहा पक्का?’’

‘‘भाई, कल शाम तो क्लब की मीटिंग है. उस में जाना ही पड़ेगा वरना लोग कहेंगे कि मीटिंग छोड़ कर मौज उड़ाने सिनेमा चल दिए.’’

‘‘सुन, क्लब की मीटिंग तो तेरे बिना भी हो सकती है, फिर उस में गप्पें मारने और खानेपीने के सिवा और होता ही क्या है? अव्वल तो कोई तुम से पूछेगा नहीं और अगर पूछे भी तो कह देना कि एक जबरदस्त दोस्त जबरन सिनेमा घसीट ले गया.’’

अगले दिन वाकई सब लोग सिनेमा देख ही आए. कोई खास अच्छी फिल्म नहीं थी. लेकिन मैं ने देखा कि ललिता से ले कर बच्चों तक के चेहरों में नई चमक थी. और उस की हलकी परछाईं प्रतीक पर भी थी.

इसी के बाद दीवाली का त्योहार पड़ा. उस दिन ललिता ने रात के भोजन के लिए कई विशेष व्यंजन बनाए. नित्य की भांति हम सभी साथसाथ बैठे भोजन कर रहे थे. मुझे 1-2 वस्तुएं विशेष स्वादिष्ठ लगीं और मैं बोल पड़ा, ‘‘दही की पकौडि़यां बहुत बढि़या बनी हैं. बहुत ही मुलायम हैं. प्रतीक, तुझे अच्छी नहीं लगीं?’’

‘‘नहीं, बनी तो अच्छी हैं,’’ प्रतीक का उत्तर था.

‘‘तो फिर अभी तक तेरे मुंह से कुछ फूटा क्यों नहीं? क्या तेरे स्वादतंतु भी सूख गए हैं?’’

‘‘ललिता के हाथ की बनी हर चीज जायकेदार होती है. किसकिस चीज की तारीफ करता फिरूं?’’

‘‘लेकिन इस में तेरी गांठ का क्या निकल जाएगा, जो इतनी कंजूसी दिखाता है?’’

‘‘भाई, घर में यह चोंचलेबाजी मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘वाह, क्या अच्छी चीज को अच्छा कहने पर भी कर्फ्यू लगा रखा है?’’

दोनों छोटे बच्चे मुसकराने लगे और ललिता भी कुछ सकुचा गई.

तभी चपरासी ने एक तार ला कर प्रतीक को देते हुए कहा, ‘‘हुजूर, सरकारी नहीं है. साहब के नाम से है.’’

प्रतीक ने बिना खोले ही लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘देख तो क्या है?’’

तार पढ़ने के बाद उसे प्रतीक को थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुरंत चल दूं. आपरेशन से पहले तो हर हालत में पहुंचना ही होगा.’’

सभी शंकित दृष्टि से मेरे मुख की ओर देखने लगे और भोजन कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गया.

प्रतीक मुझे स्टेशन छोड़ने आया. गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर टहलते हुए वह मुझ से बोला, ‘‘उस रात तुम ने जो कहा था वह बराबर मेरे दिमाग में घुमड़ रहा है. मुझे तो ऐसा लगता है कि निरंतर ‘जी हुजूर’ और ‘जी सरकार’ के चापलूसी माहौल से घिरा मैं सचमुच ही इनसान से हैवान बनता जा रहा हूं. किसी कोने से भी तो इनकार की आवाज नहीं सुनता. सच, तेरा आना ऐसा लगा जैसे किसी ताजा हवा का झोंका जी को लहरा गया हो. सुन, वहां पहुंचते ही पिताजी की हालत के बारे में मुझे लिखना.’’

हम लोगों ने एकदूसरे के हाथ थाम लिए थे और 10 वर्ष पूर्व की स्नेहसिक्त भावनाओं से सराबोर हो रहे थे.

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