लेखक- धीरज कुमार

मुंबई में 25 साल के सरोज कुमार ठाकुर अपने 2 दोस्तों 20 साल के सोनू कुमार और 23 साल के विकास कुमार के साथ रहते थे. तीनों हास्पिटल में हास्पिटल ब्रदर का काम करते थे. लौकडाउन के बाद वे अपने पैसे से खातेपीते रहे, लेकिन जब पैसा खत्म हो गया तो जिंदगी बचाने के लिए सिर्फ एक ही उपाय था, किसी तरह घर पहुंचना. और फिर उन तीनों ने मिल कर घर जाने का फैसला किया. घर से खाते पर पैसे मंगवाए. किसी तरह वहां से पैदल निकले. कुछ दिन पैदल चलने के बाद उन्हें एक ट्रक वाला मिला जिस ने पहले तो उन्हें लिफ्ट दी लेकिन बाद में उन तीनों से 9,000 रुपए भाड़े के रूप में ले लिए.

ट्रक वाले ने उन्हें बनारस छोड दिया. बनारस से छोटी गाड़ी कर के वे रोहतास, बिहार पहुंचे. घर पहुंचने के बाद शांति महसूस हुई, लेकिन गांव वालों ने गांव के बाहर ही रोक कर क्वारंटीन सैंटर, जो अपने ही पंचायत के सरकारी स्कूल में बना है, वहां जाने का आदेश दिया .अभी वे तीनों कुछ दिन यही रहेंगे. खानेपीने का इंतजाम सरकार द्वारा किया गया है, लेकिन इंतजाम ठीक नहीं है. गांव वाले ऐसे बरताव कर रहे हैं जैसे वे सब अछुत हैं. जिन दोस्तों व परिवार के लिए इतनी मुश्किलें झेलने के बाद जिंदगी पर खेल कर गांव पहुंचे हैं, सभी मिलने से डर रहे हैं. चाहे फिर घरपरिवार के लोग हों या दोस्त.

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डेहरी ब्लौक के पहलेजा गांव के 42 साल के सत्येंद्र शर्मा और 37 साल के संजय शर्मा इंदौर, मध्य प्रदेश में रहते थे. वे वहां फर्नीचर बनाने का काम करते थे. उन का 17 साल का भतीजा इम्तिहान देने के बाद घूमने गया था. वहां काम बंद हो गया. खाने के लाले पड़ने लगे. तीनों ने अपनी मोटरसाइकिल से घर आने का फैसला किया. वे 3 दिनरात मोटरसाइकिल चला कर घर पहुंच गए. सिर्फ रात में कुछ घंटे के लिए पेट्रोल पंप पर सोए. रास्ते में किसी से भी खानापीना तक नहीं लिया, क्योंकि वे काफी डरे हुए थे. अब वे लोग गांव के स्कूल में क्वारंटीन सैंटर पर रह रहे हैं.

दिल्ली में 26 साल के अनुज कुमार, 24 साल के अनूप कुमार और 19 साल के मुकेश प्रसाद कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते थे. तीनों एक ही गांव के थे. वे कंस्ट्रक्शन कंपनी में मिक्चर मशीन में ड्राइवर और हैल्पर का काम करते थे. तीनों का एक ही मकसद था, पैसा कमा कर घर के लोगों को बेहतर जिंदगी देना. लेकिन वे कभी सपने में भी नहीं सोचे थे कि इस महामारी में फंस जाएंगे और जिंदगी को बचाना भी बड़ा मुश्किल हो जाएगा.

वे तीनों कहते हैं कि अब कभी भी दिल्ली नहीं जाएंगे. जब से महामारी फैली है, वे दहशत में जी रहे थे. जिस तरह से दिल्ली में माहौल बन चुका था, ऐसा नहीं लगता था कि वे कभी घर पहुंच पाएंगे. घर की दहलीज पर आ कर भी वे घरपरिवार से दूर हैं, इस बात का अफसोस रहेगा, लेकिन सिर्फ कुछ दूरी पर घर होने के बाद भी वे लोग फोन से घर का हालचाल ले रहे हैं.

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जब उन से कहा गया कि सरकार तो ट्रेन चला रही है, वहां से मजदूरों को ला रही है तो उन का कहना था कि ट्रेन आप के मोबाइल में चल रही होगी. हम मजदूरों के लिए तो ट्रेन नहीं चल रही है. अगर ट्रेन चल रही होती तो हम पैदल या इस तरह से ट्रक में जानवरों की तरह बैठ कर घर नहीं आते. सुने तो हम लोग भी थे कि मोदीजी विदेश में रहने वाले लोगों को हवाईजहाज से अपने देश वापस ला रहें हैं, पर हम मजदूरों को मरने के लिए छोड़ दिए, क्योंकि हम सब गरीब थे. ऐसी जिल्लत भरी जिंदगी कभी नहीं देखी थी, लेकिन हम लोगों को कोरोना महामारी ने ऐसा दिखा दिया. अब घर पर ही छोटामोटा काम कर लेंगे, लेकिन दोबारा पलट कर वहां कभी नहीं जाएंगे

ये उदाहरण तो सिर्फ बानगी भर हैं. बहुत से लोगो के जिंदगी संकट में पड़ गई थी. बहुत से लोग काफी परेशान थे. परेशानी के इस आलम में जिंदगी बचाना मुश्किल लग रहा था. जो बच कर आए थे वे अपनेआप को खुशनसीब समझ रहे थे. ज्यादातर लोगों का यही कहना था कि जब हम लोग संकट में घिर गए थे, तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम लोग इस देश के नागरिक नहीं हैं. लोगों का  बरताव बदल गया था.

उन लोगों का कहना था कि राज्य सरकार के पास इतना इंतजाम नहीं है कि हम सब को रोजगार दे. वर्तमान मुख्यमंत्री हमारे राज्य में 15 साल से शासन कर रहे हैं, लेकिन अभी तक हम बेरोजगारों के लिए कोई इंतजाम नहीं कर पाए हैं. जब हम दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए जाते हैं और पैसा कमा कर अपने राज्य में भेजते हैं, तो हमारे परिवार के लोग उसब्से सामान खरीदते हैं. सरकार उन सामानों पर टैक्स लेती है. क्या उस पैसे से राज्य का विकास नहीं हो रहा है?

बहुत से क्वारंटीन सैंटरों पर इंतजाम इतना खराब था कि कई जगह पर तो मजदूर बगावत भी कर रहे थे. लोग देखरेख करने वाले पर अपना गुस्सा उतार रहे थे. राज्य सरकार की बदइंतजामी का आलम यह था कि लोग कहीं भोजन के लिए परेशान थे, तो कहीं रहने का इंतजाम भी ठीक नहीं था. देखरेख करने वाले शिक्षकों को भी उचित किट नहीं दी गई थी.

डेहरी के पहलेजा पंचायत के सरकारी स्कूल को क्वारंटीन सैंटर बनाया गया है जिस में अलगअलग राज्यों से आए हुए मजदूरों की तादाद 60 है. इसी पंचायत के मुखिया प्रमोद कुमार सिंह ने बताया, “क्वारंटीन सैंटर पर 30 मजदूरों के लिए इंतजाम किया गया है. जिस तरह से राज्य सरकार ने ऐलान किया है, उस तरह सरकारी मुलाजिम इंतजाम करने में कतरा रहे हैं, क्योंकि यहां अफसरशाही ज्यादा है.

“लेकिन गांव का मुखिया होने के नाते मैं अपने खर्च पर लोगों के लिए सब्जी बनवाने और दूसरी तरह के इंतजाम कर रहा हूं, क्योंकि वे लोग हमारे हैं. राज्य सरकार सारी घोषणाएं अखबार में तो कर दी है, लेकिन सुविधाएं धरातल पर नदारद हैं.”

लौकडाउन की घोषणा होने से पहले केंद्र सरकार को मजदूरों के बारे में भी सोचना चाहिए था. जो समस्याएं आज आई हैं, उन के बारे में अगर पहले सरकार सजग होती तो आज जिस तरह से उन के साथ समस्याएं हो रही हैं, वे नहीं होतीं.

सरकार चाहती तो उन मजदूरों को तबाह होने से बचा सकती थी, क्योंकि पहला मामला 22 जनवरी को केरल में मिला था. सरकार को अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बंद कर देनी चाहिए थीं. देश के विभिन्न राज्यों में जो मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे थे, उन्हें सुरक्षित अपने राज्य में जाने की सूचना दी जा सकती थी. केंद्र सरकार ने भी इन मजदूरों के बारे में कुछ नहीं सोचा, क्योंकि ये गरीब परिवार से आते थे. सरकार ने सिर्फ नेताओं ,पूंजीपतियों और उद्योगपतियों के बारे में सोचा.

अब देखना यह होगा कि इस महामारी के बाद राज्य सरकार आए हुए मजदूरों के लिए क्या इंतज करती है. सरकार ने तो यह घोषणा कर दी है कि सभी मजदूरों को हर महीने 1,000 रुपये खाते में दिए जाएंगे, साथ ही मजदूरों के लिए राशन भी दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं लगता है. सरकार की घोषणाएं अखबार में तो खूब दिख जाएंगी, पर धरातल पर नदारद रहती हैं.

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