भाग-1
रामलीला मैदान में आज और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक भीड़ थी. महाराजजी का उपदेश सुनने दूरदूर से आए भक्तों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आयोजकों के साथसाथ शहर की कई स्वयंसेवी संस्थाएं अपना योगदान दे रही थीं. कतार में भक्ति भाव से बैठे भक्तों के बीच महाराजजी की फोटो थाल में सजा कर कई व्यक्ति घूम रहे थे जिस में भक्त बडे़ श्रद्धाभाव से भेंट चढ़ा रहे थे.
महाराजजी के इस सातदिवसीय कार्यक्रम का आज अंतिम दिन है. पंडाल के बाहर महाराजजी की संस्था के कार्यकर्ता उन के प्रवचनों, गीतों के कैसेट्स, किताबें और पूजा से संबंधित सामग्री के स्टाल लगाए हुए थे. साथ ही प्रायोजक दुकानदारों की दुकानें भी सजी हुई थीं जिन मेें कई प्रकार के शर्बतों के अलावा आंवला, सेब व बेल की मिठाइयां एवं चूर्ण के साथ खानेपीने की अन्य वस्तुएं भी बिक रही थीं. आज उपदेश के बाद महाराजजी अपने भक्तों की व्यक्तिगत समस्याओं को सुनने के लिए कुछ समय देने वाले थे.
कार्यक्रम के अंतिम दिन महाराजजी का यह व्यक्तिगत परिचय भक्तों को एक अभूतपूर्व संतुष्टि देता था. इस कारण भी महाराजजी खासतौर से चर्चित थे. किंतु भक्तों की लंबी कतार एवं समय की कमी के चलते महाराजजी केवल 50 व्यक्तियों को ही समय दे पाते थे. अपनी समस्याओं का समाधान एवं आशीर्वाद लेने के लिए लोग बाहर एक सेवक को अपना नामपता लिखवा रहे थे.
उपदेश एवं भजन समाप्त हुए. महाराजजी स्टेज के पीछे बने छोटे से कमरे में चले गए. वहां एक के बाद एक लोग आते और महाराजजी को विस्तार से अपनी समस्याएं बताते. महाराजजी उन को एक गुरुमंत्र धीमे से बताते और कुछ पुडि़याएं देते. उन के पास ही एक बड़ा सा चांदी का थाल रखा हुआ था जिस में एक लाल रंग के वस्त्र के ऊपर 100 और 500 रुपए के कुछ नोट रखे हुए थे. भक्तों के लिए इतना इशारा ही काफी था.
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‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए एक स्त्री आते ही उन के चरणों में गिर पड़ी और सुबकसुबक कर रोने लगी.
‘‘उठो बेटी, क्या बात है,’’ कहते हुए महाराजजी ने उसे स्वयं सहारा दे कर उठाया और अपने पास बिठा लिया. महाराजजी का स्पर्श पाते ही वह बेहद भावुक हो उठी.
‘‘10 वर्ष हो गए हैं विवाह को, 2 बेटियां हैं, बेटे की चाहत लिए आप के पास आई हूं. आप तो जानते ही हैं कि बेटा न होने पर समाज में कैसेकैसे ताने सुनने पड़ते हैं और ससुराल में प्रताडि़त किया जाता है, जैसे सारा दोष मेरा ही हो…बड़ी उम्मीद ले कर आई हूं आप के पास,’’ इतना कहतेकहते वह फिर बिलखने लगी.
‘‘शांत हो जाओ, बेटी. बेटाबेटी होना इनसान के पूर्व जन्मों का फल है. हमारे परिवारों में घोर अज्ञानता है इसीलिए यह दोष बेटियों के सिर मढ़ दिया जाता है. तुम चिंता मत करो. मैं कोशिश करता हूं. तुम्हारे भी दिन फिरेंगे.’’
‘‘अब तो बस, आप का ही सहारा है,’’ वह साड़ी के आंचल से आंसू पोंछते हुए बोली.
‘‘मैं एक मंत्र और उस के जाप की विधि के साथ तुम्हें कुछ पुडि़या दे रहा हूं. सेवक से सब समझ लेना. लाभ अवश्य होगा. अगली बार पति की फोटो भी साथ में लाना. मैं सम्मोहन प्रक्रिया से उन का मत बदलने का प्रयत्न करूंगा.’’
स्त्री ने पुन: महाराजजी के चरणस्पर्श किए और 101 रुपए थाल में भेंट चढ़ा कर बड़ी आशा लिए वहां से चली गई.
ठीक 5 बजते ही महाराजजी एक बड़ी सी विदेशी कार में बैठ कर अपने आश्रम की तरफ चल दिए. उन के पीछेपीछे कारों का लंबा काफिला था जिन में शायद उन के अंतरंग सेवक, विशिष्ट व्यक्ति और विदेशी अनुयायी बैठे थे.
अपने निजी कक्ष में कुछ देर विश्राम करने के बाद महाराज आश्रम के हाल में आ गए. यहां केवल उन के बेहद खास सेवक ही मौजूद थे. उन के आते ही सब ने उठ कर उन का स्वागत किया और महाराजजी के आसन पर बैठते ही वे सब सामने की कुरसियों पर बैठ गए.
‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए रमेश भाई बोले, ‘‘प्रीत नगर कैंसर सोसायटी आप का चारदिवसीय कार्यक्रम रखना चाहती है. इस के लिए सोसायटी के लोग 50 हजार रुपए का चेक भी दे गए हैं किंतु अंतिम स्वीकृति तो आप को ही देनी है. आप की आज्ञा हो तो…’’
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‘‘सिर्फ 50 हजार रुपए रमेश भाई,’’ चौंक कर महाराजजी ने पूरे व्यावसायिक अंदाज में कहा, ‘‘प्रतिदिन 50 हजार से कम तो किसी प्रोग्राम के मत लो. आप को मालूम होना चाहिए कि लोग मेरे नाम का उपयोग कर के कितना धन कमाते हैं. पिछले महीने जयपुर में जो तीनदिवसीय कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, उस में संस्था ने पूरे 6 लाख रुपए कमाए थे. लोगों की श्रद्धा और भावनाओं को कैसे भुनाया जाता है ये संस्थाएं अच्छी तरह जानती हैं…फिर हम लोग पीछे क्यों हटें.’’
‘‘जी महाराज, मैं सारी बातें फिर से तय कर के आप को बताता हूं,’’ कहते हुए रमेश भाई बैठ गए.
‘‘आज की व्यवस्था कैसी रही मोहनदासजी,’’ महाराजजी ने दूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए पूछा.
‘‘और दिनों के मुकाबले आज काफी अच्छी थी. आप के थाल से 19 हजार, पुस्तकों की बिक्री से 7,800, कैसेट एवं सीडी से 18 हजार की राशि प्राप्त हुई है. महाराजजी, आजकल घरों में महात्माओं के बडे़बडे़ फोटो लगाने का प्रचलन बढ़ रहा है. कई भक्त इस बारे में मुझ से पूछ चुके हैं,’’ मोहनदास बोले.
‘‘यह भी उत्तम विचार है. 6 हजार से नीचे तो मेरी फोटो की कीमत होनी ही नहीं चाहिए और 10 हजार रुपए देने वाले को मैं खुद फोटो भेंट करूंगा.’’
इस तरह के नएनए तरीकों से अतिरिक्त धन जुटाने की सलाह समिति के सदस्य दे रहे थे.
कुछ देर बाद सभी सदस्य उठ कर चले गए. महाराजजी के साथ उन के 3 परम शिष्य वहीं बैठे रहे. आज खासतौर से इन शिष्यों ने कुछ अंतरंग विषयों पर चर्चा करने के लिए महाराजजी से अनुनयविनय की थी.
‘‘गुरुजी, कई दिनों से एक बात हम लोगों को विचलित कर रही है. वैसे हम उसे कहना नहीं चाहते थे पर लोगों का मुंह भी कैसे रोकें इसलिए मजबूर हो कर आप से पूछना पड़ रहा है. आप के नाम का यश और कीर्ति निरंतर फैलती जा रही है, भक्तों की भी निरंतर वृद्धि हो रही है, किंतु…’’
‘‘किंतु क्या? शंका एवं समस्या क्या है?’’ महाराज बोले, ‘‘आप को इतनी बड़ी भूमिका बांधनी पड़ रही है.’’
‘‘इस वंश बेल को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए…यदि एक बेटा होता तो…आप तो जानते ही हैं कि कई बार लोग कैसे बेहूदे सवाल करते हैं. कहते हैं, यदि बेटा होने का कोई मंत्र या दवा होती तो महाराज का अब तक बेटा क्यों नहीं हुआ. महाराज, इस से पहले कि आप की छवि धूल में मिल जाए कुछ तो कीजिए. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.’’
महाराज निशब्द हो गए…जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. बात सच भी थी. आखिर इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए कोई तो अपना होना चाहिए था. महाराज की बेटे की चाहत में पहले से ही 3 बेटियां थीं और इस उम्र में बेटा पैदा करने का रिस्क वह लेना नहीं चाहते थे. महाराजजी देर तक शून्य में देखते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सोचा तो मैं ने भी बहुत है पर अब क्या हो सकता है?’’
‘‘क्यों नहीं हो सकता, महाराज. आप की उम्र ही अभी क्या है. फिर पहले के ऋषिमुनि भी तो यही तरीका अपनाते थे.’’
‘‘कौन सा तरीका?’’ सबकुछ जानते हुए भी अनजान बन कर पूछा महाराजजी ने.
‘‘दूसरा विवाह. आप का काम भी हो जाएगा और लोगों का मुंह भी बंद हो जाएगा.’’
महाराज धीरे से मुसकराए. दूसरे विवाह की कल्पना मात्र से ही वह पुलकित हो उठे थे इसलिए खुल कर मना भी न कर सके.
बेटा न होने का सारा दोष महाराजजी ने अपनी पत्नी सावित्री के सिर मढ़ दिया था. यही नहीं, बेटा पाने की चाह में 2 बार सावित्री का वह गर्भपात भी करा चुके थे.
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अब फिर शिष्यों के कहने पर उन की सोई चाहत फिर से बलवती हो उठी. एक तो बेटे की चाहत और उस से भी बड़ी खूबसूरत, छरहरी अल्प आयु की पत्नी पाना. महाराज का रोमरोम खिल उठा.
शिष्यों ने महाराज को कई सुंदर युवतियां दिखाईं और उन में से एक को महाराज ने पसंद कर लिया.
महाराज के शिष्य इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह विवाह उन की प्रतिष्ठा एवं चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है. इसलिए वे कोई ठोस धरातल और उपयुक्त मौके की तलाश में थे और वह मौका उन्हें जल्द मिल गया.
शिष्यों ने पहले तो इस बात की चर्चा फैला दी कि एक शराबी पति ने अपनी पत्नी पर लांछन लगा कर उसे घर से निकाल दिया है. बेचारी अनाथ, बेसहारा लड़की अब महाराज की शरण में आ गई है. इस के अलावा वह गर्भवती भी है वरना तो उसे नारी निकेतन भेज देते.
पूर्वनियोजित ढंग से शिष्यों ने एक सभा के दौरान महाराज से पूछा कि अब इस स्त्री का भविष्य क्या है?
‘‘इस शरण में आई अबला का आप लोगों में से कोई हाथ थाम ले तो मैं समझूंगा कि मेरा कार्य सार्थक हो गया,’’ महाराज ने बेबस हो कर याचना की.
‘‘ऐसी स्त्री का कौन हाथ पकडे़गा. यदि यह गर्भवती न होती तो शायद कोई सोचता भी.’’
‘‘फिर मैं समझूंगा कि मेरी वाणी और विचारों का आप लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. हमें पुरानी रूढि़यां तोड़ कर नए समाज का निर्माण तो करना ही है और हम वचनबद्ध भी हैं.’’
‘‘कहना बहुत सरल है, महाराज, पर कौन देगा ऐसी स्त्री को सहारा? क्या आप दे सकेंगे? भीड़ में से एक स्वर तेजी से उभरा.
सभा में खामोशी छा गई. कई सौ निगाहें उस व्यक्ति पर जा टिकीं.
उस ने फिर अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘कहिए महाराज, आप चुप क्यों हैं?’’
‘‘हां, मैं इसे अपनाने के लिए तैयार हूं,’’ कह कर महाराज ने सब को हैरानी में डाल दिया.
चारों तरफ महाराज की जयजयकार होने लगी. महाराज ने देखा, सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने चाहा था.
सावित्री को जब इस बात का पता चला तो वह बेहद नाराज हुई. घर में तनाव का वातावरण पैदा हो गया. पर महाराज ने इस ओर ध्यान न दे कर उस स्त्री को दूसरे आश्रम में स्थान दे दिया. सावित्री की नाराजगी को दूर करने के लिए महाराज ने एक दिन विशाल सभा में उस के त्याग और प्रेम की बेहद प्रशंसा की और बोले कि यदि सावित्री का साथ न होता तो शायद मैं कभी इस स्थान पर न पहुंचता. और उस दिन के बाद सावित्री को ‘गुरु मां’ का दरजा मिल गया.
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समय चक्र तेजी से घूमने लगा. उधर गुरु मां स्थानस्थान पर सभाओं और समारोहों का उद्घाटन करने में व्यस्त रहने लगीं, इधर महाराजजी अपनी नई दुलहन सुनीता के साथ अति व्यस्त रहने लगे. एक दिन उन्हें यह जान कर बेहद खुशी हुई कि पत्नी सुनीता का पांव भारी है.
महाराजजी खुद सुनीता को ले कर एक प्राइवेट नर्सिंग होम में गए. डाक्टर साहब उन के शिष्य थे इसलिए व्यक्तिगत रूप से उस का चेकअप करने लगे. बात जब अल्ट्रासाउंड की आई तो डाक्टर साहब ने उन्हें डेढ़ माह बाद आने को कहा.
डेढ़ माह महाराजजी के लिए जैसे डेढ़ युग के बराबर गुजरा. निर्धारित दिन को महाराज अपनी लंबी विदेशी गाड़ी में खुद सुनीता को ले कर उसी डाक्टर के पास पहुंचे. अल्ट्रासाउंड के बाद महाराज और डाक्टर साहब दूसरे कमरे में चले गए. सुनीता बाहर बैठी थी, तभी उस का ध्यान अचानक अपनी चेन और कंगनों पर गया जो उस ने मशीन के पास उतारे थे. वह तेजी से भीतर गई तो उन दोनों की बातें सुन कर क्षण भर के लिए वहां रुक गई.
‘‘महाराज, यह बात तो आप भी जानते हैं कि लिंगभेद बताना गलत है फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता दूं कि आप के घर लक्ष्मी का प्रवेश हो रहा है.’’
‘‘ओह,’’ कहते हुए महाराज निढाल हो गए.
‘‘क्या हुआ, महाराज? सब ठीक तो है न,’’ डाक्टर साहब ने तुरंत खडे़ हो कर पूछा, ‘‘आप तो अंतर्यामी हैं. आप की भी यही कामना रही होगी.’’
‘‘अब क्या बताऊं आप को,’’ महाराज बेहद उदास स्वर में बोले, ‘‘मेरी पहले से ही 3 बेटियां हैं.’’
‘‘परंतु महाराज, आप तो लोगों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. कितने ही भक्तों ने आप के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्त किए हैं और आप अपने लिए कुछ न कर पाए, यह मैं नहीं मानता,’’ डाक्टर ने अपनी शंका सामने रखी.
‘‘डाक्टर, यह तो आप भी जानते हैं कि मंत्रों, टोनेटोटकों से कुछ नहीं होता. इन से ही यदि पुत्र प्राप्त होते तो आज मेरे घर बेटियां न होतीं. मैं तो बस, विश्वास बनाए रखता हूं. कोई मनोरथ सिद्ध हो जाता है तो श्रेय मुझ को जाता है अन्यथा कर्मों का वास्ता दे कर मैं चुप हो जाता हूं.’’
डाक्टर साहब बड़ी हैरानी से यह सब बातें सुनते रहे. उन्हें महाराज का यह बदला हुआ रूप बड़ा अजीब लगा.
‘‘डाक्टर, इस कन्या के आने से मेरे घर में काफी रोष उत्पन्न हो जाएगा. आप इस का तत्काल अबार्शन कर दीजिए, नहीं तो भक्तों का मुझ पर से विश्वास ही उठ जाएगा.’’
‘‘यह क्या कह रहे हैं आप, महाराज. इस स्त्री का यह पहला बच्चा है और हम पहले बच्चे का गर्भपात नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि…’’
‘‘आप अपनी राय अपने पास ही रखिए,’’ महाराज तिलमिला उठे, ‘‘मेरे पास तुम जैसे शिष्यों की कमी नहीं है. यह काम तो मैं कहीं भी करा लूंगा.’’
-क्रमश: