इंगलैंड में हुए एक सर्वे में यह पता चला है कि फेसबुक पीढ़ी बहुत अकेली होती जा रही है. 16 से 24 साल के 40 फीसदी युवा काफी अकेलापन महसूस करते हैं जबकि 65 से 74 साल के 29 फीसदी ही हैं और 75 साल से ज्यादा के 27 फीसदी. बु्रनेल युनिवर्सिटी की रिसर्च से पता चला है कि फेसबुक, व्हाट्सऐप और डेटिंग साइटों की मौजूदगी के बावजूद युवाओं में अकेलापन बढ़ रहा है.

शायद इस का एक कारण यह है कि परिवार छोटे होते जा रहे हैं और जौब करने की जगह दोस्त नहीं बनते, बल्कि प्रतियोगी बनते हैं. काम बदलने और मोबिलिटी बढ़ने से भी हर थोड़े दिनों बाद आसपास का जो चेहरा अपना सा लगने लगा था, अचानक गायब हो जाता है. हर नए चेहरे से मित्रता बढ़ाने में समय तो लगता ही है.

अब वह जमाना नहीं रह गया जब लोग एक जगह टिक कर काम करते थे और टिक कर रहते थे. तब दोस्ती व परिचय वर्षों के होते थे. आज उम्रदराज लोगों को समस्याएं कम होती हैं क्योंकि उन की जिंदगी में ठहराव आ जाता है. वे टिक कर रहते हैं, अपना घर खरीद लेते हैं, काम आसानी से बदलते नहीं हैं. वे रिश्तेदारों को सहेज कर भी रखते हैं. ‘यह मेरा स्पेस है’, ‘यह मेरा टाइम है’ जैसे वाक्य उन के मुंह से नहीं निकलते. वे हर चीज शेयर करना जानते हैं, वक्त पर एकदूसरे के काम आते हैं. उन की जड़ें जमने लगती हैं. आज युवाओं की दोस्ती गुलदस्तों के फूलों जैसी होती है जिन की जड़ें नहीं होतीं और जो 24 घंटे में सूख कर झड़ जाते हैं.

पहले फूलों को धागे में पिरोया जाता था, अब तो उन्हें डंठल से बांध कर रखने का फैशन है, जो ढीले होते ही, एकएक कर बिखर जाते हैं. कंप्यूटर क्रांति ने लोगों को काफी नजदीक लाने का जो वादा किया था वह खोखला साबित हुआ है. कंप्यूटर ने तो एकदूसरे को दूर कर दिया है क्योंकि अब तो लिखावट भी पहचान में नहीं आती. अब तो कंप्यूटर के फौंटों ने अपना एकाधिकार जमा लिया है. कुछ ऐप्स तो फौंट को बदलने भी नहीं देते और मैसेज मां ने भेजा है, बहन ने भेजा है, प्रेमिका ने भेजा है या बेटी ने, कोई फर्क नहीं रह जाता.

हां, इतना जरूर है कि अकेलेपन को कोई सजा समझना गलत होगा. पहले 8-10 सदस्यों के घर में भी बहुत से खुद को अकेला और अनचाहा समझते थे. उन की कोई गिनती नहीं करता था. लोग असल में तब अकेलेपन को ढूंढ़ा करते थे. अकेलापन खराब नहीं होता. इस का अपना मजा है. आप का स्पेस, आप का टाइमटेबल, आप का अपना खानपान, आप की सफलता ये सब बड़े काम के हैं.

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