कांजीवरम नटराजन अन्नादुरई के मुख्यमंत्रित्वकाल में तमिलनाडु से पृथक तमिलनाडु बनाने की आवाज तो पिछले 4-5 दशकों में खो गई लेकिन अब कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने अलग द्राविड़नाडु की मांग कर के देश के विभाजन की बात कर दी है. जब यूरोप के कई देशों, पश्चिम एशिया के देशों, श्रीलंका, दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों में ऐसी मांगें उठ रही हों तो इस मांग को हलके में नहीं लेना चाहिए.

मूलतया एक देश की सफलता के पीछे एक बड़े भूभाग में एक अर्थव्यवस्था, एक मुद्रा, एकजैसे कानून, एक जगह से दूसरी जगह जाने की स्वतंत्रता, अलगअलग तरह के लोगों को एक झंडे के नीचे रहना शामिल होता है. लेकिन जब केंद्र सरकार एक तरह के लोगों के लिए काम करने लगे और कुछ इलाकों को लगने लगे कि उन के साथ लगातार भेदभाव हो रहा है, तो अलगाव की आवाज स्वाभाविक तौर पर उठ खड़ी होती है.

ऐसा हम आंध्र प्रदेश के विभाजन में देख चुके हैं जो एक तरह से सीमित था हालांकि वहां भी बीज देश से अलग हो जाने के थे. यह तो तत्कालीन केंद्र सरकार की चतुराई थी कि उस ने सिर्फ राज्यविभाजन से काम चला लिया.

तमिल तो पहले से ही अलग होना चाहते थे. उन का सपना तो भारत के तमिलनाडु और श्रीलंका के जाफना के इलाके को मिला कर नया देश बनाने की है. अब मलयाली, कन्नडि़गा और आंध्री भी ऐसी ही मांग को दोहराने की कोशिश में लगे हैं. कटट्रपंथी जिसे आर्यावर्त्त कहते हैं उस में इस इलाके को हमेशा नीचा सा समझा गया है जहां से केवल गुलाम या दास लाए जाते थे.

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस अभी इस मांग को गंभीरता से नहीं ले रहीं पर जिस तरह से देश में छटपटाहट का वातावरण बन रहा है और ऊंचनीच की भावना को सरकारी संरक्षण मिल रहा है, यह मांग हिंसक हो सकती है. यह नहीं भूलना चाहिए कि जब खालिस्तान की मांग ने तूल पकड़ा था तो केंद्र सरकार के हौसले पस्त हो गए थे. यह तो कांग्रेस व भाजपा की दूरदर्शिता थी कि राजीव गांधी ने हरचरण सिंह लोंगोवाल से समझौता कर लिया जबकि अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रकाश सिंह बादल से और संकट को सदा के लिए समाप्त कर डाला.

दक्षिण में यह समस्या उग्र हो सकती है क्योंकि भाजपा कट्टर हिंदू मठों के सहारे जीत का सपना देख रही है. वह जातियों की राजनीति के तहत वर्णव्यवस्था के आधार पर एकदूसरे को लड़वाने में लगी है. कैंब्रिज एनालिटिका ने स्पष्ट किया है कि देश की पार्टियां उस से फेसबुक पर जमा डेटा के आधार पर जाति का विश्लेषण मांगती हैं क्योंकि जाति के नाम पर वोट मांगना आसान होता है. यही अलगाव बाद में अलग देश की मांग बन जाता है जो यूरोप के यूगोस्लाविया में दिखा और इराक में कुर्दों के साथ दिख रहा है.

चुनाव जीतने के लिए जाति का उपयोग पैट्रोल व माचिस से खेलने के बराबर है. इस बारे में कठिनाई यह है कि गलीगली में मौजूद धर्म के दुकानदारों को देश की नहीं, अपनी दुकानदारी की चिंता रहती है. उन्होंने पहले सदियों तक देश को गुलाम बनवाए रखा, 1947 में टुकड़े करवाए और अब पूरे समाज में ऊंचनीच की खाइयां गहरी पर गहरी करते जा रहे हैं. उन पर न मोहन भागवत का नियंत्रण है न नरेंद्र मोदी का.

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