महाराष्ट्र सरकार ने लोगों को काम करने में आजादी देते हुए दुकानों और मौलों को 24 घंटे खुला रखने की इजाजत दे कर सही किया है. पहले कर्मचारियों के हितों के नाम पर दुकानों के घंटे बांधे गए थे ताकि मालिक उन से रातदिन काम न ले सकें. यह कानून बिजली के आने से पहले तो शायद ठीक था पर जब से पूरे शहर ही नहीं, कसबे और गांव भी रातदिन रोशनी में जगमगा रहे हैं, तो यह निरर्थक है.
इस बदलाव के बाद अब व्यवसायियों पर निर्भर है कि वे अपने प्रतिष्ठानों को कब खोलें और कब बंद करें. पहले जहां लोग सुबह जल्दी दुकानें खोलते थे और जल्दी बंद करते थे, अब उलटा होने लगा है. ज्यादातर बाजार निर्धारित 9-10 बजे की जगह 11-11:30 बजे तक खुलते हैं और देररात तक खुले रहते हैं.
आज लोगों को घर से काम की जगह तक जाने में एक तरफ से 1 से 2 घंटे लगाने पड़ रहे हैं. ऐसे में उन के पास रात को ही शौपिंग का समय बचता है. दिन में बच्चों की देखरेख, स्कूल होमवर्क में व्यस्त गृहिणियों तक को फुरसत नहीं मिलती कि वे आराम से शौपिंग कर सकें. रात को यह सुविधा मिलने का अर्थ है कि बच्चों को सुला कर घर से आराम से निकला जा सकता है.
दरअसल, अभी भी सरकारों ने नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत से अंकुश लगा रखे हैं. कुछ कर्मचारियों के हितों के नाम पर हैं, कुछ सामाजिक व्यवस्था के नाम पर, कुछ कानून बनाए रखने के नाम पर. अब समय आ गया है कि लोग छोटे समूहों में अपने नियम खुद तय करें. दुकानों का समय दुकानों के मालिक अकेले या बाजार में व्यापारियों के साथ मिलजुल कर तय करें.
पार्किंग भी कुछ ऐसा ही मामला है. इसे घरों और दुकानों को तय करना चाहिए, ट्रैफिक पुलिस या कौर्पाेरेशनों को नहीं. केवल सड़कों पर असुविधा न हो, इस के लिए बंधन हों पर जहां सीमित आनाजाना है वहां जनता खुद तय करे. यह सोच कि सरकारी दफ्तर में बैठा अफसर या चुना हुआ नेता ज्यादा जानकार है, बंद होनी चाहिए.
व्यक्तिगत मामलों में सरकार का दखल न हो क्योंकि हर दखल का मतलब है रिश्वतखोरी और तरफदारी की एक खिड़की खोल देना. रिश्वत की दलदल के कारण यहां कानूनों की भरमार है जो तेजी से बढ़ रहे हैं. रातभर दुकानें खोेले जाने की अनुमति मिलना एक राहत है. पक्की बात है कि इस में भी सरकारी अगरमगर जरूर होंगे जो जल्दी ही दिखेंगे.