कैलाश की मां मर गई थीं. वे 75 साल की थीं. कैलाश ने अपने मामा के लड़कों के साथ रिश्तेदारों को भी खबर पहुंचा दी. तकरीबन सभी रिश्तेदार और समाज के लोग कैलाश के इस दुखद समय पर हाजिर हो गए. फिर कैलाश ने अपनी मां की अर्थी का इंतजाम कर दाह संस्कार भी कर दिया.
उसी दिन शाम को ही नातेरिश्तेदारों के साथ बैठ कर कैलाश मृत्युभोज का दिन व समय तय करने के लिए चर्चा करने लगा, तभी कैलाश के मामा के लड़के मोहन ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘भाई, अभी मृत्युभोज की तारीख तय मत करो… मैं बूआजी की गौरनी करना चाहता हूं. उस के बाद तुम मृत्युभोज कर लेना.’’
कैलाश ने पूछा, ‘‘यह गौरनी क्या होती है?’’
मोहन ने कैलाश को हैरानी से देखा, ‘‘गौरनी नहीं जानते तुम… यह गौने का छोटा रूप है,’’ फिर वह समझाने लगा, ‘‘मैं बूआजी को इज्जत से उन के मायके यानी अपने घर ले जाऊंगा. बाकायदा उन का ट्रेन, बस वगैरह का टिकट भी लूंगा. जो वे खाएंगी खिलाऊंगा, फिर समाज के लोगों को न्योता दे कर अच्छेअच्छे पकवान बना कर भोजन कराऊंगा.
‘‘उस के बाद बूआजी को नए कपड़ों और सिंगार के सामान के साथ इज्जत से तुम्हारे घर विदा कर दूंगा. भाई, फिर तुम मृत्युभोज की तारीख तय कर लेना.
‘‘पर, मां तो मर गई हैं. उन की देह को हम ने जला भी दिया है. कैसे ले जाओगे उन्हें?’’ कैलाश ने हैरानी से पूछा.
‘‘मैं बूआजी के पुराने कपड़ों को बूआजी समझ कर ले जाऊंगा… अब मेरी ट्रेन का समय हो रहा है. चल, जल्दी से बूआजी को मेरे साथ विदा कर दे.’’
कैलाश हैरान हो कर मोहन का मुंह ताकने लगा, तो मोहन ने उसे झिड़का, ‘‘मूर्ख, मेरा मुंह क्या ताक रहा है? जा, बूआजी के पुराने कपड़े ले आ.’’
कैलाश घर के भीतर जा कर थोड़ी देर में अपनी मां के पुराने कपड़े एक पौलीथिन बैग में रख कर ले आया. मोहन उसे देख कर चीख पड़ा, ‘‘अबे, बूआजी का दम घुट जाएगा. जल्दी पौलीथिन से बाहर निकाल.’’
कैलाश ने घबरा कर फौरन कपड़े बाहर निकाले और एक गहरी लंबी सांस ली, मानो अपनी मां को दम घुटने से बचा लिया हो, फिर मायूस हो कर उस ने कपड़े मोहन को थमा दिए. मोहन बोला, ‘‘अब बूआजी से माफी मांग और प्रणाम कर के बोल कि मां घर जल्दी आ जाना.’’
लाचार कैलाश कपड़ों से माफी मांग कर बोला, ‘‘मां, घर जल्दी आ जाना.’’ मोहन ने कपड़ों से कहा, ‘‘चलो बूआजी अपने मायके. वहां भाईभतीजे आप का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.’’ मोहन अपनी पत्नी शारदा को साथ ले रिकशा स्टैंड पर आ गया. थोड़ी देर में एक रिकशा उस के पास आ कर रुका.
‘‘कहां जाओगे?’’
‘‘रेलवे स्टेशन. तुम 3 सवारियों का कितना पैसा लोगे?’’
रिकशे वाले ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘तीसरा कौन है?’’
‘‘देख नहीं रहे हो. मेरे हाथ में बूआजी हैं,’’ मोहन ने जवाब दिया.
रिकशे वाले ने गौर से देख कर कहा, ‘‘ये तो किसी औरत के पुराने कपड़े हैं.’’
‘‘इन्हें कपड़े मत कहो.’’
मोहन ने नाराजगी जाहिर की, ‘‘ये मेरी बूआजी हैं. इन का अभीअभी कुछ देर पहले देहांत हो गया है.
‘‘पर, तुम चिंता मत करो, मैं बूआजी का पूरा किराया दूंगा.’’
यह सुन कर रिकशे वाला डर कर कांपने लगा, क्योंकि मोहन के चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी और माथे पर लगा तिलक तांत्रिक होने का संकेत दे रहे थे.
‘‘भैया, आप की बूआजी को बिठा कर ले जाना मेरे बस की बात नहीं है,’’ रिकशे वाला हाथ जोड़ते हुए बोला.
इतना कह कर वह रिकशा ऐसे ले कर भागा, जैसे बूआजी का भूत उस के पीछे पड़ गया हो. मोहन और उस की पत्नी उस को रोकते रह गए, पर वह नहीं रुका.
थोड़ी देर बाद एक सवारी टैंपो वहां आ कर रुका. निराश मोहन और शारदा की आंखों में चमक लौट आई. सवारी टैंपो में पहले से ही 3-4 सवारियां बैठी थीं और 4-5 सवारियों के बैठने की जगह थी. मोहन शारदा के साथ बैठ गया और पास ही खाली सीट पर बूआजी के कपड़े रख कर बोला, ‘‘बूआजी, अब आप आराम से यहां बैठिए. आप को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’
आसपास बैठी सवारियां उस की बात सुन कर हैरत से उसे और कपड़ों को देखने लगीं.
‘‘अजीब आदमी है, कपड़ों से बात कर रहा है,’’ टैंपो का कंडक्टर बोला.
‘‘भैया, खाली सीट से कपड़े उठा लो और उधर सरक कर बैठो. मुझे और भी सवारियां लेनी हैं,’’ कंडक्टर बोला.
मोहन ने तैश में आ कर जवाब दिया, ‘‘तमीज से बोलो… वे कपड़े नहीं, बूआजी हैं और उन का किराया मैं देने को तैयार हूं.’’
‘‘कहां हैं बूआजी?’’ कंडक्टर ने हैरानी से पूछा.
‘‘वे मर गई हैं, लेकिन उन के कपड़े ही बूआजी हैं.’’
‘‘तो क्या बूआजी के भूत को साथ ले कर चल रहा है?’’
परेशान मोहन तैश में बोला, ‘‘यही समझ ले.’’ आसपास बैठी सवारियां उन की बातें सुन कर खौफ से भर गईं और सभी एकएक कर के टैंपो से उतर गईं.
कंडक्टर ने देखा कि सवारियां डर कर उतरी हैं, तो वह भी डर गया. हालात से समझौता करते हुए कंडक्टर हाथ जोड़ कर मोहन से बोला, ‘‘भाई, तू मुझ से किराया ले ले और किसी दूसरी गाड़ी से स्टेशन चला जा, पर अपनी बूआजी को नीचे उतार ले. मेरी सारी सवारियां डर कर भाग रही हैं.’’
मोहन ने उसे समझाने की कोशिश की, पर सवारी और कंडक्टर उस की बात सुनने को तैयार नहीं हुए. मोहन थकहार कर कपड़े उठा कर टैंपो से उतर गया.
‘‘ऐसे तो हम किसी गाड़ी में नहीं बैठ पाएंगे,’’ शारदा ने कहा, ‘‘अब किसी रिकशे वाले को यह मत बताओ कि बूआजी हमारे साथ हैं.’’
‘‘बात तो तुम ठीक कह रही हो, पर इस उम्र में बूआजी को बिना भाड़ा दिए ले जाना सरासर बेईमानी है. उन की आत्मा हमें कोसेगी.’’
‘‘चलो, फिर पैदल ही चलते हैं.’’
‘‘ठीक है,’’ कह कर मोहन और शारदा पैदल चल दिए.
थोड़ी दूर चलने के बाद शारदा बोली, ‘‘सुनोजी, बूआजी थक गई होंगी, क्यों न कहीं बैठ कर हम थोड़ा आराम कर लें?’’
‘‘ऐसे कैसे थकेंगी बूआजी. उन को तो हम उठाए हैं.’’
‘‘मेरा मतलब है कि बूआजी को थोड़ा चायनाश्ता करवा दो, बेचारी कब से भूखीप्यासी हमारे साथ चल रही हैं.’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो. सवारी गाड़ी के चक्कर में बूआजी की भूखप्यास का मुझे जरा भी खयाल नहीं आया.’’
एक होटल में जा कर मोहन ने एक खाली कुरसी पर बूआजी के कपड़े रखे और और्डर दिया, ‘‘भैया, 3 गिलास पानी और 3 जगह 2-2 समोसे और चाय देना.’’
नौकर ने पानी, चाय, समोसे टेबल पर रख कर पूछा, ‘‘तीसरा कौन है साहब?’’
मोहन तैश में आ कर बोला, ‘‘इन कपड़ों के सामने सामान रख दे. तुझे बूआजी नजर नहीं आएंगी.’’ नौकर ने मोहन और कपड़ों को अजीब नजरों से देखा और चुपचाप नहाने चला गया. नाश्ता और पानी का गिलास कपड़ों के सामने सरका कर मोहन बोला, ‘‘बूआजी, समोसे खा कर पानी पी लो.’’
नौकर ने दूर से मोहन की बुदबुदाहट सुनी, पर उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. वह डर कर सीधा अपने मालिक के पास पहुंचा.
थोड़ी देर बाद होटल मालिक मोहन के सामने जा खड़ा हुआ और बोला, ‘‘यहां क्या यह तांत्रिक पूजा चल रही है? यह होटल है, तुम्हारी तंत्र साधना की जगह नहीं. चलो, उठो यहां से.’’
मोहन हड़बड़ा कर सफाई देने लगा, ‘‘आप गलत समझ रहे हो, दरअसल…’’
मालिक झल्लाया, ‘‘मुझे मूर्ख बना रहे हो… कपड़े को समोसा खिला रहे हो, पानी पिला रहे हो और ऊपर से मंत्र बुदबुदा रहे हो. मेरे नौकर ने तुम्हें दूर से देखा है.’’
तभी नौकर ने मालिक की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘मालिक, जब मैं ने तीसरी प्लेट के बारे में पूछा, तो यह आदमी बोला कि कपड़ों के सामने रख दे. यह प्लेट बुआजी की है, जो तुझे नजर नहीं आएंगी.’’
मोहन के कुछ बोलने से पहले ही मालिक बोला, ‘‘चलो, उठो यहां से. नाश्ते के पैसे भी मत दो. चलो, होटल के बाहर जाओ.’’ मोहन और शारदा बेइज्जत हो कर होटल के बाहर आ कर रेलवे स्टेशन की ओर चल दिए.
रेलवे स्टेशन पहुंच कर मोहन 3 टिकट ले कर ट्रेन में जा बैठा और खाली सीट पर कपड़े रख दिए. धीरेधीरे डब्बा मुसाफिरों से भरने लगा. एक मुसाफिर ने मोहन से कहा, ‘‘भैया, कपड़े उठाओ, उधर सरको और हमें भी बैठने की जगह दो.’’
मोहन बोला, ‘‘बूआजी बैठी हैं.’’
उस मुसाफिर ने सोचा कि शायद इस की बूआजी बाथरूम वगैरह कहीं गई होंगी. वह आगे बढ़ गया, तभी दूसरे मुसाफिर ने कपड़े के लिए मोहन को टोका, तो मोहन ने वही जवाब दिया, ‘‘बूआजी बैठी हैं.’’
वह आदमी खीज कर बड़बड़ाने लगा, ‘‘हमारा देश भी अजीब है. बस सीट पर कपड़ा या रूमाल रख दो, तो आरक्षण हो जाता है.’’
डब्बा जब खचाखच भर गया और ट्रेन चलने को हुई, तो पास ही खड़े एक मुसाफिर ने पूछा, ‘‘भैया, तेरी बूआजी कब आएंगी?
‘‘आएंगी क्या…? बूआजी तो यहीं बैठी हैं,’’ मोहन बोला.
‘‘कहां बैठी हैं? हमें तो नजर नहीं आ रही हैं.’’
‘‘कपड़े ही बूआजी हैं.’’
‘‘तो भाई ऐसा कर, अपनी बूआजी को गोद में बिठा ले,’’ उस आदमी ने तैश में आ कर कहा, ‘‘और हमें बैठने दे.’’
मोहन जिद पर अड़ गया, ‘‘नहीं उठाऊंगा. मैं ने बूआजी का टिकट लिया है,’’ मोहन की उस मुसाफिर से जम कर बहस होने लगी.
तभी वहां टिकट कलक्टर यानी टीसी आ गया. उस ने मोहन से कपड़े उठाने को कहा, तो मोहन ने जवाब दिया, ‘‘नहीं उठाऊंगा. मैं ने बूआजी का टिकट लिया है.’’
टीसी ने टिकट देख कर गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘टिकट बराबर है.’’ मोहन के चेहरे पर जीत भरी मुसकान आ गई.
टीसी ने गुजारिश करते हुए मोहन से कहा, ‘‘देखो भाई, आप सही हैं, टिकट सही है, पर दूसरे मुसाफिरों को सुविधा मिले, इसलिए अपनी बूआजी के कपड़े गोद में रख लो.’’
मोहन टीसी की बात ठुकराते हुए अपनी जिद पर अड़ा रहा, तभी टीसी के दिमाग में कुछ आया. वह मोहन से बोला, ‘‘जरा फिर से टिकट दिखाना.’’
मोहन ने उसे टिकट दे दिया. टीसी ने टिकट देख कर पूछा, ‘‘आप की बूआजी सीनियर सिटीजन हैं.’’
‘‘जी हां, मैं ने टिकट भी सीनियर सिटीजन का ही लिया है,’’ मोहन ने गर्व से जवाब दिया.
‘‘आप की बूआजी नजर नहीं आ रही हैं. मैं कैसे अंदाजा लगा लूं कि वे सीनियर सिटीजन हैं. कोई पहचानपत्र या आधारकार्ड वगैरह है?’’
अब तो मोहन की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. वह हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘जी, वह तो नहीं है.’’
टीसी ने मन ही मन सोचा कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. ‘‘पहचानपत्र नहीं है. चलो, फाइन के साथ दोगुना किराया दे दो या इन कपड़ों को बूआजी मत कहो. अच्छी तरह समझ लो कि ये कपड़े हैं और चुपचाप उठा लो. अंधविश्वास छोड़ो, वरना जुर्माने के साथ दोगुना किराया भरो.’’
थकहार कर मोहन ने कपड़े उठा लिए, तो एक मुसाफिर उस सीट पर जा कर बैठ गया.
टीसी के जाते ही दूसरे मुसाफिर अंधविश्वास के खिलाफ चर्चा में मशगूल हो गए और इधर मोहन चुपचाप नजरें झुकाए शर्मिंदा होते हुए न चाहते हुए भी उन की बातें सुनता रहा.