‘अब की बार आम आम आदमी की पहुंच के अंदर,’ किराने की दुकान से नूनतेल लेते हुए अचानक नजर अखबार की इस सुर्खी पर पड़ी, तो एकाएक भरोसा नहीं हुआ. लेकिन अखबार वाले झूठी खबर भला क्यों छापेंगे, यह सोचते हुए उस ने हिम्मत जुटाई और आम के भाव पूछे.

कीमत बहुत ज्यादा नहीं थी, तो कम भी नहीं थी. हफ्ताभर चायबीड़ी वगैरह की तलब छोड़ कर आखिरकार उस ने आधा दर्जन आम खरीद ही लिए. मियांबीवी और 3 बच्चे. कुल 5 जनों के लिए एकएक आम. 6ठा आम वह कहीं अकेले में बैठ कर गुपचुप खाना चाहता था.

सड़क पर किसी जानपहचान वाले से टकराने का खतरा था, इसलिए वह पास के एक पार्क में घुस गया, जहां ज्यादातर बड़े आदमी ही टहला करते थे. वह झाड़ी की ओट ले कर बचपन के दिनों को याद करते हुए तबीयत से आम चूसने का इरादा कर के बैठ गया.

‘‘कौन है तू? थैली में क्या है?’’ वह आम निकालता, इस से पहले ही किसी ने कड़क कर उस से पूछा. सकपकाते हुए उस ने सिर उठाया. सामने डंडा लिए हवलदार खड़ा था.

‘‘जी, आम हैं,’’ कहते हुए उस ने बेहिचक थैली का मुंह खोल दिया. उस के हिचकने का कोई कारण भी तो नहीं था. ‘आम आदमी आम खाते हुए पकड़ा गया’ ऐसी कोई खबर बनने की उम्मीद थोड़े ही थी.

‘‘अरे, इतने सारे आम. कहां से लाया है और यहां क्या कर रहा है?’’ हवलदार जोर से बोला.

‘‘जी, ये आम मैं ने सड़क पर ठेले वाले से लिए हैं... बच्चों के लिए. शांति के साथ बैठ कर एक आम खाने के लिए यहां आ गया.’’

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