यह कहानी है मुरादाबाद के उभरते हुए गायक किशन मोहन गेहरोत्रा (फरहान अख्तर) की. वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए मुरादाबाद से दिल्ली जाते हैं. जहां वह अपना नया संगीत एलबम खुद बनाना चाहते हैं. उनका मानना है कि ‘शहर छोटे होते हैं, सपने नहीं’. लेकिन उनके सपने बहुत जल्द टूट जाते हैं. उनके साथ कई घटनाएं तेजी से घटती हैं और अंततः उन्हें एक आईएएस आफिसर की हत्या के जुर्म में आजीवन जेल हो जाती है. किशन को मुरादाबाद जेल में रखा जाता है, जहां से वह भागने का असफल प्रयास करते हैं.
18 माह बाद उन्हें लखनऊ सेंट्रल जेल भेज दिया जाता है. जहां उन्हें उम्मीद की किरण उस वक्त नजर आती है, जब राज्य के मुख्यमंत्री (रवि किशन) ऐलान करते हैं कि हर जेल का एक संगीत का बैंड होगा और उनके बीच प्रतिस्पर्धा होगी. एक एनजीओ कार्यकर्ता गायत्री (डायना पेंटी) से प्रोत्साहन पाकर जेल के कैदियों को अपने साथ जोड़कर संगीत का ‘लखलऊ सेंट्ल’ नामक अपना बैंड बनाते हैं, जिसमें विक्टर (दीपक डोबरियाल), पंडित जी (राजेश शर्मा) और परविंदर (गिप्पी ग्रेवाल) शामिल हैं.
इस म्यूजिकल बैंड को बनाने के पीछे किशन की अपनी अलग योजना है. इस बैंड से जुड़े पांचों कैदियों का मकसद जेल तोड़कर भागना है. वैसे किशन के बैंड को जेलर श्रीवास्तव (रोनित राय) के विरोध का भी सामना करना पड़ता है. मगर किशन को बार बार मुख्यमंत्री का सहयोग मिलता है. मुख्यमंत्री की मदद से बैंड के कुछ सदस्यों को कुछ दिनों के लिए पैरोल पर अपने घर जाने की सुविधा मिलती है.
जब यह अपने घर पहुंचते हैं, तो इन्हें अहसास होता है कि परिवार के लोग उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहते. बहरहाल अंत में प्रतियोगिता होती है, जिसमें किशन के बैंड को विजयी घोषित किया जाता है. उसके बाद नाटकीय ढंग से वह इंसान अदालत में आता है, जिसकी गवाही पर किशन को सजा हुई थी. अदालत में कहता है कि उसने दबाब में किशन के खिलाफ झूठी गवाही दी थी, किशन तो पूरी तरह से निर्दोष है और किशन को रिहा कर दिया जाता है.
फिल्म की शुरुआत उम्मीदे जगाती है, मगर जैसे जैसे यह फिल्म आगे बढ़ती है, वैसे वैसे बिखरती और जबरन कहानी बुनी गयी लगने लगती है. इंटरवल के बाद तो पूरी कहानी को टीवी सीरियल की तरह खींचा गया है. फिल्म का क्लायमेक्स भी गड़बड़ है. एक वाक्य में कहें तो फिल्म की कहानी, पटकथा सहित सब कुछ बहुत कमजोर है. फिल्म को बेवजह लंबा खींचा गया है. इस लंबाई को एडीटिंग टेबल पर कसने की जरूरत थी. कम से कम इसे बीस मिनट काटा जाना चाहिए था. फिल्म का गीत संगीत भी कमजोर है.
कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है. इसी तरह की कहानी पर कुछ दिन पहले एक फिल्म ‘कैदी बैंड’ भी आ चुकी है, जिसे दर्शकों ने सिरे से नकार दिया था. वास्तव में फिल्म ‘कैदी बैंड’ और ‘लखनऊ संट्रेल की कहानी, विषयवस्तु, पात्रों की कैदी बनने की कहानी वगैरह सब कुछ एक जैसी ही है. फिल्म में मनोरंजन, रोमांस, इमोशंस का घोर अभाव है.
जहां तक अभिनय का सवाल है, तो फरहान अख्तर निजी जीवन में अपनी संस्था ‘मर्द’ के तहत म्यूजिकल कंसर्ट करते रहते हैं, जहां वह खुद गाते हैं. उसी को लोकप्रिय करने के लिए वह फिल्मों में भी गायक के ही किरदार में नजर आने लगे हैं. पर परफार्मेंस में कुछ नया नहीं कर रहे हैं. पिछली फिल्म ‘रौकऔन 2’ में भी उन्होंने काफी निराश किया था और अब ‘‘लखनऊ सेंट्ल’’ में भी निराश करते हैं. दीपक डोबरियाल, गिप्पी ग्रेवाल की प्रतिभा को जाया किया गया है. डायना पेंटी ठीक ठाक लगी हैं. रोनित राय सहज लगे हैं, पर वह इस तरह के किरदार कई फिल्मों में पहले भी निभा चुके हैं. रवि किशन की वजह से फिल्म में ह्यूमर आता है. फिल्म के कैमरामैन ने अच्छा काम किया है.
दो घंटे 27 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘लखनऊ सेंट्रल’’ का निर्माण निखिल अडवाणी, मोनिशा अडवाणी, मधु भोजवानी के साथ ‘वायकाम 18’ ने किया है. फिल्म के निर्देशक रंजीत तिवारी, लेखक रंजीत तिवारी व असीम अरोड़ा, कैमरामैन तुषार कांति रे तथा के कलाकार हैं फरहान अख्तर, डायना पेंटी, गिप्पी ग्रेवाल, दीपक डोबरियाल, इनामुल हक, रोनित राय, राजेश शर्मा, रवि किशन आदि.