है क्या वजह कि जीओ और जीने दो

का उसूल हमें आज भी नहीं भाता,

यह खोट है नजर का कि दूसरों का सुखचैन हम से देखा नहीं जाता.

इनसानी कमजोरी पर ये लाइनें बड़ी मौजूं लगती हैं. जाति के आधार पर इनसान का इनसान में फर्क करना, बेवजह की दूरी और ऊंचनीच के फासले बनाना एक सामाजिक बुराई है. तालीम व तरक्की बढ़ने के बावजूद पल रही ऐसी बुराइयों की वजह जातिवाद, पिछड़ी सोच व धार्मिक कट्टरता है. बगलाभगत सब से एकजैसा सा बरताव करने, दीनदुखियों की मदद करने व उन्हें गले लगाने की महज बातें करते हैं. उन की कथनी और करनी एक नहीं होती है. हालांकि भेदभाव की बुनियाद पर टिकी इमारतें बेहद पुरानी व खंडहर हो चुकी हैं, लेकिन उन का वजूद बरकरार है, जो आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. यही वजह है कि आरक्षण से पिछड़ों, दलितों को सरकारी दफ्तरों में नौकरी तो मिल जाती है, लेकिन असलियत में उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं मिलता. अकसर उन्हें ताने सुनने को मिलते हैं. उन का मजाक उड़ाया जाता है.

बड़ों की सोच छोटी

एक सरकारी महकमे से रिटायर हुई सुधा रानी की जिंदगी जद्दोजेहद भरी रही. तकरीबन 40 साल पहले बमुश्किल पढ़लिख कर उन्हें स्टैनो की नौकरी मिली, लेकिन पूरे सेवाकाल में उन्हें एक टीस बराबर बनी रही.

सुधा रानी ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के सहकर्मी लंच के वक्त या किसी की फेयरवैल पार्टी वगैरह में घुमाफिरा कर अकसर यह एहसास कराते थे कि मैं उन से अलग हूं, नीची जाति की हूं, इसलिए उन की बराबरी न करूं.’’

एक दलित अफसर का कहना है, ‘‘जैसे हाथी के दांत खाने के और व दिखाने के और होते हैं, वैसे ही सरकारी दफ्तरों में भी बहुत से अगड़े अफसर व मुलाजिम आज भी बेहद पिछड़ी सोच के शिकार हैं. उन्होंने अपने अलग गुट बना रखे हैं. हमारे साथ बैठने व खाने तक से परहेज करते हैं. वे बातबात पर नाकभौं सिकोड़ते हैं.

‘‘ऊंची जाति वाले अकसर अपनी जाति वालों की तरफदारी करते हैं.

हमें गैर समझते हैं, इसलिए अपनों की पैरोकारी में तबादले व तैनाती के फरमान जारी होते हैं. इस भेदभाव के चलते हमें बहुत सी चीजों से अलग रखा जाता है.’’

मुट्ठी से फिसलती रेत

यह बात सच है कि ऊंची जाति में पैदा होने, ज्यादा पैसा या पावर पा लेने या फिर उम्र में बड़ा हो जाने से ही कोई इनसान बड़ा नहीं हो जाता. उस के काम, उस की मेहनत व सूझबूझ से हासिल मुकाम ही उस को बड़ा बनाते हैं. समझदार लोग इसे मानते भी हैं, लेकिन इस के बावजूद हमारे समाज का एक कड़वा सच इस के बिलकुल उलट है.

संतमहंत उपदेशों व कथाप्रवचनों में भी दूसरों को बराबरी की सीख देते हैं, लेकिन बात ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली तर्ज पर आ कर ठहर जाती है. इसलिए जब उस पर अमल होने की बारी आती है, तो अगड़े खुद को ऊंचा और दूसरों को नीचा साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ते. इस गरज से वे कमजोरों की टांगखिंचाई करने से भी बाज नहीं आते.

सदियों से हमारे समाज में धनदौलत, ओहदा, रुतबा वगैरह पर कब्जा अगड़ी जातियों का ही रहा है. यह सिलसिला आज भी बरकरार है, इसलिए महज मुट्ठीभर लोग ही सारी आन, बान और शान को अपनी जागीर समझते हैं. जायजनाजायज हुक्म दे कर दूसरों से काम कराने को वे अपना हक मानते हैं.

सब जानते हैं कि भारतीय संविधान में देश के हर नागरिक को बराबरी का हक है. इस के बावजूद सरकारी दफ्तरों में आरक्षण की वजह से नौकरी व तरक्की पाने वाले लोग भी अगड़ों की आंखों में किरकिरी बने रहते हैं.

यह कितने अफसोस की बात है कि अच्छेखासे खातेपीते व अमीर जाति वाले लोग भी अब अपने लिए आरक्षण की मांग करने लगे हैं.

कड़वा तजरबा

देखा गया है कि सरकारी नौकरी में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण की सहूलियत मिलने की बात ज्यादातर अगड़ों के गले आसानी से नहीं उतरती. दरअसल, जब उन्हें अपने आसपास दूसरी छोटी जाति वाले बढ़ते दिखते

हैं, तो वे बेवजह ही उन की बातों पर लालपीले होने लगते हैं. कभी क्रीमीलेयर का मुद्दा उठाते हैं, तो कभी प्रमोशन में आरक्षण को गलत बताते हैं. इतना ही नहीं, मौका पाते ही वे अपने मातहतों को डरानेधमकाने व सताने से भी बाज नहीं आते.

फर्क इतना है कि पहले बाहुबल से डराधमका कर बंधुआ बना लिया जाता था, मारपीट कर सताया व बेइज्जत किया जाता था, जबरन जमीनें व बहूबेटियां छीन ली जाती थीं, लेकिन अब पढ़ेलिखे अगड़े नए तरीके से दिमागी तौर पर सताने लगे हैं. उन के बरताव में कदमकदम पर बेजा गुस्सा, घमंड व रोब टपकता है.

यह बात अलग है कि सरकारी नियमकानून के डर से अगड़े आरक्षण का फायदा लेने वालों को सीधे व खुल कर विरोध नहीं कर पाते, लेकिन फिर भी दिमागी तौर पर सताने के लिए कोशिशें जरूर की जाती हैं.

मसलन बेबुनियाद आरोप लगाने, जांच में फंसाने व कार्यवाही करने में अगड़े अकसर गुस्सा निकालते हैं, झूठी शिकायतें कर के उन्हें बेवजह परेशान करते हैं.

मेरठ, उत्तर प्रदेश के गन्ना महकमे में मंडलीय लैवल के एक दलित अफसर को उन के नाम के हिज्जे बिगाड़ कर उन के संगीसाथी पहले तो खूब मजाक बनाते थे, फिर जब उन का चयन आईएएस में हो गया, तो रोड़ा अटकाने के लिए उन की झूठी शिकायत कर दी कि उन्होंने लखनऊ मीटिंग विभागीय सफर में सैकंड क्लास का टिकट ले कर फर्स्ट क्लास का टीए लिया था.

इस की जांच हुई व दलित अफसर बेगुनाह पाए गए. वे तो अपनी काबिलीयत से डीएम व कमिश्नर बन गए और उन से जलने वाले सारे अगड़े वहीं कदमताल करते रह गए, लेकिन ऐसी खुराफातों से अलगाव, टकराव व तनाव बढ़ता है.

ऐसे बदलाव होगा ही नहीं

यह सच है कि सरकारी महकमों, सार्वजनिक निगमों व सहकारी संगठनों में तयशुदा आरक्षण मिलता?है, लेकिन आरक्षण पाने वालों की गिनती कम ही रहती है.

आमतौर पर अगड़ों को ही अव्वल समझा जाता है. यह बात गलत है. सिर्फ इम्तिहान में हासिल नंबरों को सुबूत मान कर कामयाबी की दलीलें दी जाती हैं. बिना परखे ही अगड़ों के हुनर का गुणगान किया जाता है.

आरक्षण के चलते नौकरी पाने वालों को कमतर आंका जाता है. इतना ही नहीं, उन्हें नकारा समझा जाता है. साथ ही, मौका लगते ही उन्हें खूब खरीखोटी सुनाई जाती है.

कहींकहीं तो आज भी शादीब्याह में, कुओं पर, मंदिरों में उन के साथ खराब बरताव किया जाता है. सोशल मीडिया पर भी कई तरह की बेसिरपैर की भड़ास देखीपढ़ी जा सकती है, लेकिन सरकारी दफ्तरों में भी गैरबराबरी का चलन

होना बहुत बुरा है. इस माहौल के जल्द सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि  हर जाति में जातिवाद गहरे तक समाया हुआ है.

पुरानी है बीमारी

गैरबराबरी से जुड़े इस मसले के कई पहलू हैं. दरअसल, गरीबगुरबे, दलित, पिछड़े सदियों से अगड़ों की जबरदस्ती की मार के शिकार रहे हैं. ताकत, जागरूकता, तालीम की कमी, गरीबी व जातिवाद, छुआछूत और अंधविश्वास की जड़ें बहुत गहरी हैं.

गंवई इलाकों में रहने वाले ही नहीं, बल्कि शहरी भी भेदभाव करने के हिमायती हैं, इसलिए तरक्की के बावजूद हमारे समाज में पसरी सामंती सोच की वजह से दफ्तरों में आज भी कमजोरों के साथ भेदभाव होता है.

बहुमत में मौजूद सरकारों ने पिछड़ों व निचलों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ों को आरक्षण की सहूलियत दी, इस से डूबते को तिनके का सहारा मिला, लेकिन अगड़ोंदबंगों, निठल्लों व कब्जेदारों को यह रास नहीं आता, क्योंकि जरूरतमंदों को आरक्षण मिल जाने से उन्हें अपने हाथों से कठपुतलियां फिसलती नजर आती हैं.

कपड़ों के नीचे छिपे इस कोढ़ को हमेशा के लिए दूर किया जाए, समाज में ऐसा नया माहौल बनाया जाए, जिस में सभी अगड़े दलितों व पिछड़ों से चिढ़ना छोड़ें, उन्हें सिर्फ अपना खिदमतगार न समझें.

ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं है. बस, जरूरत है नए दौर के पंडेपुजारियों के उन झूठे किस्सेकहानियों की पोल खोलने की, जिन की घुट्टी बचपन से पिलाई गई है.

दरअसल, ऐसी बातें सिर्फ हम सब को अलगथलग कर के खुद अपना घर भरने की गरज से की जाती हैं. अगड़े, नेता, पंडेपुजारी, कट्टरपंथी, धर्म और समाज के ठेकेदार अपने फायदे के लिए भेदभाव के बीज बो कर लोगों को भरमाते, भटकाते व भड़काते हैं.

अमीर मुल्क बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और हम सदियों पुराने पचड़ों में पड़े हैं. साथ ही, आरक्षण से नौकरी की सहूलियत पाने वालों को भी कोशिश करनी चाहिए कि वे नौकरी को अपनी मंजिल नहीं, सफर समझें. काम का तजरबा व हुनर सीख कर खुद अपना रोजगार करें, ताकि नौकरी करने के बजाय अपने यहां दूसरों को काम पर रखने वाले बन सकें. मेहनत, कोशिश व सूझबूझ से आगे बढ़ें और ऐसा करना मुश्किल नहीं है.

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