Editorial: कश्मीर के पहलगाम में टूरिस्टों पर आतंकवादी हमले की कीमत भारतीय जनता पार्टी को कुछ ज्यादा चुकानी पड़ेगी. इसलिए नहीं कि 26 लोग मरे. इतने लोग तो कितने ही हादसों में मरते रहते हैं. बसों के खाई में गिरने पर मर जाते हैं, पुल गिरने पर मर जाते हैं, ट्रेन में दुर्घटना हो जाने पर मर जाते हैं. भाजपा की परेशानी यह है कि जो मरे हैं वे खातेपीते घरों के हैं जो महंगे हवाई टिकट ले कर श्रीनगर पहुंचे और फिर पहलगाम में ठहरे.
ये पैसे वाले लोग हैं. ये ही वे लोग हैं जो 50 साल से ‘हिंदूमुसलिमहिंदूमुसलिम’ कर के अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं. इन्हीं के जैसे पंडितों को जब कश्मीर घाटी से आतंकवाद के कारण बाहर निकाला गया तो कांग्रेस को गहरा नुकसान उठाना पड़ा. भ्रष्टाचार का बहाना बता कर 2014 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो असली खेल तो वे पंडित खेल रहे थे जो कश्मीर से भगाए गए थे.
2025 में अब उलटा हुआ है. पुलवामा में जो मरे थे वे सैनिक थे. आमतौर पर आतंकवादियों का कहर आम लोगों को सहना पड़ता है. इस बार पहलगाम में ऊंची जातियों के अच्छे खातेपीते घरों के लोगों को सहना पड़ा है. इन में से हरेक की जान की कीमत बहुत ज्यादा होती है. ट्रेन दुर्घटना में 200 मर जाएं तो वे पहलगाम के एक के बराबर भी नहीं होंगे.
यह देश अब आम लोगों के लिए नहीं खास लोगों के लिए चलाया जा रहा है. यही खास लोग तो श्रीनगर होते हुए पहलगाम जा सकते हैं. वे अगर बेमौत मारे गए, जिल्लत से मारे गए, पैंटें खुलवा कर मारे गए तो किसी के सिर पर ठीकरा फूटेगा ही.
यह सिर तो भाजपा का ही हो सकता है क्योंकि जम्मूकश्मीर पुलिस, सेना, जमीन सब दिल्ली सरकार के हाथों में है. लोकल सरकार उमर अब्दुल्ला की सरकार तो नाम की सी है. 2014 से पहले नरेंद्र मोदी बड़ी जोशीली बातें मंचों पर करते थे और उन का इशारा उन ऊंची जातियों के भक्तों का ही होता था जो ‘हिंदूमुसलिमहिंदूमुसलिम’ को ठीक नहीं मानते थे. 2014 के बाद वे धर्म की रौ में बह गए हैं.
अब उन्हीं पर गाज गिरी है, उन्हीं से नाम ले कर, औरतोंबच्चों को छोड़ कर, सिर्फ युवाओं को निशाना आराम से बनाया गया और दिल्ली सोती मिली. क्या मोदी, भाजपा और भगवा भक्त इसे पचा लेंगे? उन धनुर्धारियों, चक्रधारियों, त्रिशूलधारियों का फायदा क्या जब वे ऋषियों, मुनियों और उन को भरभर कर खिलाने वालों और पैसा चढ़ाने वालों को नहीं बचा सकते.
यह तो इस पढ़ीलिखी जमात को पता है कि पानी बंद कर देने या सीमा पर ताला लगा देने से कुछ नहीं होने वाला. ऐसा तो नहीं है कि आतंकवादी बाघा बौर्डर से भारत का वीजा ले कर आए थे. वे पाकिस्तानी ही थे इस का भी सुबूत नहीं है, इन लोगों को मालूम है क्योंकि ये चाहे कितने भक्त हों, इन्हें सचझूठ की समझ है.
तभी इन में मरने वालों के परिवारों से जब भाजपा नेता मिलने गए थे तो खरीखरी सुन कर आए थे. सरकार इतने सकते में है कि मरने वालों को मुआवजा देने तक की हिम्मत नहीं कर पा रही क्योंकि सब करोड़पति घरों से हैं.
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दलितों को किस तरह बेवकूफ बना दिया गया है इस का एक और मामला सामने आया है पश्चिम बंगाल से जहां पूर्व बर्धमान जिले में एक गांव में दलित हल्ला कर रहे हैं कि उन्हें एक शिव मंदिर में घुसने नहीं दिया जा रहा. सवाल जो इन दलितों से पूछा जाना चाहिए कि वे इन मंदिरों में घुसना ही क्यों चाहते हैं?
ये मंदिर कुछ देते हैं क्या? वहां तो चढ़ावा चढ़ा दिया जाता है, फलफूल दिए जाते हैं, पैसे दानपात्र में लुटाए जाते हैं, वहां से कोई दलित या और कुछ ले कर थोड़े आता है. यह तो दलितों की ब्रेन वाशिंग हो चुकी है कि उन को इस मंदिर से कुछ मिलेगा और इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में वे किसी ऊंची जाति वाले के घर में पैदा होंगे.
इस गांव की 130 घरों की आबादी मंदिर में घुसने के लिए कभी पुलिस व कभी जिला अफसरों के पास जा रही है. क्यों भई, पुलिस या जिला अफसरों ने भी क्या इन की कभी पूछ की है जो अब करेंगे?
बड़ी बात तो यही है कि ये लोग मंदिरों में जाना क्यों चाहते हैं? हिंदू मंदिरों में जाने का मतलब है हिंदू वर्ण व्यवस्था को पूरी तरह मान लेना जो कहती है कि शूद्रों का जन्म किसी बड़े देवता के पैरों से हुआ है और दलित, जो इस मंदिरों में जाना चाह रहे हैं, चांडाल हैं, अछूत हैं, सब से खराब हैं. धर्म की इन बातों को दोहरादोहरा कर सदियों से दलितों को दबायाकुचला गया है.
अफसोस की बात है कि शूद्र जो खुद मंदिरों में अब तक नहीं जा पाते थे, अब अपने अलग मंदिर बना कर दलितों को न ऊंचों के मंदिरों में जाने देते हैं और न अपने दूसरे दर्जे के मंदिरों में जाने देते हैं. वे ही हिंदू धर्म व्यवस्था के सब से बड़े हिमायती बन बैठे हैं जबकि एकलव्य और शंबूक जैसे सैकड़ों किस्से हैं जिन में दलितों को ही नहीं उन से ऊंचे शूद्रों के साथ भी भेदभाव किया गया है.
मंदिरों में दलितों के जाने की इच्छा भी उसी जमात के मन में है जो इन्हें कहीं और नहीं जाने देना चाहती क्योंकि अब ऊंची जातियां चाहती हैं कि जिन दलितों के पास थोड़ाबहुत पैसा आ गया है वे किसी न किसी तरह का अपना मंदिर बना लें जहां कोई पंडापुजारी बैठ कर पूजापाठ करा सके, दलितों को लूट सके, उन की बेटियोंबहुओं से सुख पा सके.
समझ नहीं आता कि दलितों के पढ़ेलिखे नौजवान ही नहीं सरकारी दफ्तरों में पहुंच चुके अफसर अनपढ़ दलितों को समझाते क्यों नहीं कि असली मंदिर तो बाजार हैं, फैक्टरियां हैं, दफ्तर हैं, छोटे से ले कर बड़े हुनर के काम हैं जहां से वे काम कर के ऊंचों जैसा सुख पा सकते हैं. मंदिरों में चाहे वे कितनी नाक रगड़ आएं, उन्हें कानी कौड़ी का फायदा नहीं होने वाला.