तकरीबन 2 साल पहले मोदी सरकार द्वारा लाए गए 3 कृषि कानूनों को वापस लेने की हुंकार के साथ किसानों ने दिल्ली की घेराबंदी की थी. ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ दिल्ली के बौर्डर पर किसानों ने डेरा डाला था, क्योंकि दिल्ली के अंदर घुसने के सारे रास्तों पर पुलिस ने सीमेंट दीवारों पर कीलकांटे जड़ कर किसानों और केंद्र सत्ता के बीच मजबूत दीवार खड़ी कर दी थी.

उस आंदोलन के दौरान तकरीबन सालभर तक जाड़ा, गरमी और बरसात झोलते हुए किसान खुले आसमान के नीचे सड़कों पर बैठे रहे थे. तकरीबन 700 किसानों की जानें भी गई थीं. लेकिन किसानों ने तब मोदी सरकार को झका ही लिया था और वे 3 काले कानून वापस करा दिए थे, जिन से किसानों को अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाने के सारे इंतजाम मोदी सरकार ने कर दिए थे.

उस समय तो मजबूरन मोदी सरकार को किसानों की मांगों के आगे झकना पड़ा, लेकिन उस आंदोलन से कुछ और नए मुद्दे खड़े हुए, जिन को ले कर किसान एक बार फिर दिल्ली घेरने निकल पड़े.

14 मार्च, 2024 को नई दिल्ली के रामलीला मैदान में देशभर से 400 से ज्यादा किसान संगठनों के लोग महापंचायत के लिए पहुंचे. इतनी बड़ी तादाद में किसानों का रेला देख दिल्ली के कई क्षेत्रों में धारा 144 लागू कर दी गई. हालांकि, किसानों की तरफ से किसी तरह की बेअदबी नहीं हुई और महापंचायत के बाद दोपहर के 3 बजे, रैली खत्म भी हो गई.

मगर, इस महापंचायत में किसानों ने सरकार को यह संदेश जरूर दे दिया कि सरकार के बरताव से वे न सिर्फ आहत हैं, बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव में वे भारतीय जनता पार्टी को करारा सबक भी सिखाने के लिए कमर कस चुके हैं.

महापंचायत के दौरान अपनी भड़ास निकालते हुए एसकेएम के नेता डाक्टर दर्शन पाल ने कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसान भाजपा नेताओं को गांवों में नहीं घुसने देंगे, वहीं भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत ने कहा, ‘‘इस महापंचायत से सरकार को यह संदेश मिल गया है कि किसान इकट्ठा हैं और भारत सरकार बातचीत से समाधान करे. यह आंदोलन खत्म नहीं होगा. जिस तरह उन्होंने बिहार को बरबाद किया, वहां मंडियां खत्म कर दीं, पूरे देश को बरबाद करना चाहते हैं.’’

किसान नेताओं ने एमएसपी की गारंटी कानून लाने की मांग की और हरियाणापंजाब के शंभू और खनोरी बौर्डर पर बैठे किसानों पर पुलिस की कार्यवाही की निंदा की.

दरअसल, मोदी सरकार ने अपने करीबी उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए जिस तरह किसानों की अनदेखी की और उन्हें साजिशन गुलाम बनाने की कोशिश की, उस से किसान समुदाय बुरी तरह से बिफर गया है. उद्योगपतियों के अरबोंखरबों रुपए के कर्ज माफ करने वाली सरकार किसानों की छोटीछोटी मांगों को दरकिनार कर रही है.

केंद्र सरकार की तरफ से लगातार लागू की जा रही मजदूर किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ संयुक्त किसान मोरचा लगातार संघर्ष कर रहा है. अन्नदाता के मुद्दे वही पुराने हैं, जिन पर मोदी सरकार ध्यान नहीं दे रही है :

* एमएसपी गारंटी कानून आए.

* स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए.

* किसानों की कर्जमाफी हो.

* पिछले किसान आंदोलन में दर्ज मामले वापस लिए जाएं.

* पिछले किसान आंदोलन में जान खो चुके किसानों को मुआवजा दिया जाए.

* लखीमपुर खीरी वाले मामले में कुसूरवारों को सजा मिले.

* भूमि अधिग्रहण कानून के किसान विरोधी क्लौज पर दोबारा विचार किया जाए.

किसान चाहते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को सरकार लागू करे. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उन की फसल की लागत का डेढ़ गुना कीमत देने की सिफारिश की थी.

आयोग की रिपोर्ट को आए 18 साल गुजर गए, लेकिन एमएसपी पर सिफारिशों को अब तक लागू नहीं किया गया. बिजली कानून 2022 भी वापस करने का दबाव वे सरकार पर बनाए हुए हैं.

इस के अलावा भूमि अधिग्रहण और आवारा पशुओं की प्रमुख समस्या देश के अंदर बनी हुई है, जिस से किसान परेशान हैं. आवारा पशु खड़ी फसल को बरबाद कर देते हैं. इस का कोई समाधान सरकार के पास नहीं है, उलटे सरकार किसानों के हित में काम करने के बजाय उन की जमीनों को बड़े कारोबारियों के हाथों बेचना चाहती है और इसी नीयत से सरकार मजदूर किसान विरोधी नीतियां लगातार लागू कर रही है.

देश का किसान अपनी सभी फसलों के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानूनी भरोसा चाहता है और सभी किसानों के लिए कर्ज की पूरी माफी की मांग कर रहा है. जब उद्योगपतियों के कर्ज माफ हो सकते हैं, तो उस के मुकाबले किसानों की कर्ज राशि तो मामूली सी है.

मनरेगा के तहत किसानों को खेती के लिए रोजाना 700 रुपए निश्चित मजदूरी और साल में 200 दिनों के रोजगार की गारंटी भी चाहिए, जो सरकार के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है. मगर सरकार की नीयत गरीबी खत्म करना नहीं, बल्कि गरीब को खत्म करने की है.

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