बड़ी कड़की के दिन थे. महीने की 20 तारीख आतेआते मुकेश की पगार के रुपए उड़नछू हो गए थे और मुसीबत यह कि पिछले महीने की उधारी भी नहीं निबटी थी. हिसाब साफ होता तो आटा, दाल, चावल, तेल तो उधार मिल ही जाता, सब्जी वगैरह की देखी जाती. बालों में कड़वा तेल ही लगा लिया जाता, चाय काली ही चल जाती, दूध वाला पिछले महीने से ही मुंह फुलाए बैठा है. मुसीबत पर मुसीबत.

मुकेश तो सब बातों से बेखबर लेनदारों के मारे जो सवेरे 8 बजे घर से निकलता तो रात के 11 बजे से पहले आने का नाम ही न लेता. झेलना तो सब शुभा को पड़ता था. कभी टैलीविजन की किस्त, तो कभी लाला के तकाजे.

दूध वाला तो जैसे धरने पर ही बैठ गया था. बड़ी मुश्किल से अगले दिन पर टाला था. वह जातेजाते बड़बड़ा रहा था, ‘‘बड़े रईसजादे बनते हैं. फोकट

का दूध बड़ा अच्छा लगता है. पराया पैसा बाप का पैसा समझते हैं. मुफ्तखोर कहीं के…’’

शुभा आगे न सुन सकी थी. सुबह से ही सोचने लगी थी कि आज दूध वाला जरूर ही आएगा. क्या बहाना बनाया जाएगा? यह सोच कर उस ने बड़ी बेटी सुधा को तैयार किया कि कह देना घर में मेहमान आए हैं, मेहमानों की नजर में तो हमें न गिराइए.’’

यह कह कर सुधा को मुसकराने की हिदायत भी शुभा ने दे दी थी. उस के मोती जैसे दांतों की मुसकान कुछ न कुछ रियायत करवा देगी, शुभा को ऐसा यकीन था. लाला के आने के बारे में उस ने खुद को तसल्ली दी कि उसे तो वह खुद ही टरका देगी.

यह सोचने के साथ ही शुभा ने आईना ले कर अपना चेहरा देखा. बालों की सफेद हो आई लटों को बड़ी होशियारी से काली लटों में दबाया और होंठों पर मुसकान लाने की कोशिश करने लगी. उसे लगा जैसे अभी इस उम्र में भी वह काफी खूबसूरत है और बूढ़े रंडुए लाला के दिल की डोर आसानी से पहली तारीख तक नचा सकती है.

पर दूसरे ही पल शुभा को अपने इस नीच खयाल पर शर्मिंदगी महसूस हुई. देहात के चौधरी, जिन की भैंसें 10-10 लिटर दूध देती हैं, जहां अन्न के भंडार भरे रहते हैं, जिन की बात पर लोग जान देने को तैयार रहते हैं, क्या उन की बेटी को अपनी मुसकान का सौदा कर के रसद का जुगाड़ करना होगा?

शुभा उस घड़ी को कोसने लगी, जब नौकरीपेशा मुकेश के साथ भारी दानदहेज दे कर उस का ब्याह कर बापू ने अपनी समझ में जंग जीत ली थी. शुरू के कुछ सालों तक वह भी खुश रही, पर जब एक के बाद एक 3 बेटियां हो गईं और पगार कम पड़ने लगी, तो उसे बड़ा अटपटा लगा. जिन चीजों को गांव में गैरजरूरी समझा जाता था, यहां उन्हें लेना मजबूरी बन गया.

शुभा एकदम चौंकी. वह कहां बेकार के खयालों में फंस गई थी. जमाना इतना आगे निकल चुका है और वह मुसकरा कर किसी को देख लेने में भी गलती समझती है. अगर किसी की ओर मुसकरा कर देख लेने से तकलीफ दूर होती हो तो इस में क्या हर्ज है? फिर इस के अलावा उस के पास चारा भी क्या है?

मुकेश को तो इन पचड़ों में पड़ना ही नहीं है. वह पड़े भी तो कैसे? सारी तनख्वाह पत्नी को दे कर जो उसी के दिए पैसों से अपना काम चलाए, उस से शुभा शिकवा भी कैसे करे? कोई उपजाऊ नौकरी पर तो वह है नहीं. शुभा के कहने से ही जाने कितनी बार दफ्तर से कर्ज ले चुका है. सब काटछांट के बाद जो पगार बचती है, वह गुजरबसर लायक नहीं रह जाती. अब उसी को कोई रास्ता ढूंढ़ना होगा.

शुभा ने बड़े प्यार से बेटी सुधा को पुचकार कर उस की कंघी कर दी और याद दिलाया कि वह दूधिए के आने पर क्या कहेगी. उस ने यह भी कहा, ‘‘क्या मातमी सूरत बना रखी है. जब देखो, मुंह लटकाए रहती हो? मुसकराते चेहरे का अपना असर होता है. कई बार जो काम सिफारिशें नहीं कर पाती हैं, वह एक मुसकान से हो जाता है.’’

सुधा की समझ में नहीं आ रहा था कि मां क्या कह रही हैं. रोज तो तनिक हंसी पर नाक चढ़ा लेती थीं, आज उसे हंसने की याद दिला रही हैं. वह सोच ही रही थी कि तभी नीचे से दूधिए की आवाज आई, ‘‘है कोई घर में कि सब बाहर गए हैं? जब देखो बाहर… मर्द बाहर जाता है, तो क्या सारा घर उठा कर साथ ले जाता है?’’

दूधिए का भाषण चालू हुआ ही था कि सुधा होंठों पर उंगली रखे अपनी मां को खामोश रहने का इशारा करते हुए आंखों में ही मुसकराती अंदर से आ गई. दूधिए को दरवाजे के अंदर से टका सा जवाब पाने की उम्मीद थी. इस तरह सुधा के आ जाने पर वह कुछ नरम पड़ गया.

दूधिया कुछ कहना चाहता था कि सुधा बोली, ‘‘चाचा, आज मेहमान आए हुए हैं. आप भी चलिए न ऊपर चाय पी लीजिए. खैर यह हुई कि मेहमान सो रहे हैं, नहीं तो हमारी गरदन ही कट जाती शर्म से,’’ उस के चेहरे पर एक शोख मुसकराहट थी.

हालांकि मां ने मुसकराने भर को ही कहा था, दूधिए को ऊपर लाने को नहीं. पर वह हड़बड़ी में कह गई. दूधिया भी मुसकान बिखेरती छरहरी सुधा के साथ ही ऊपर चढ़ आया. जो पड़ोसी झगड़ा सुनने के लिए दरवाजों के बाहर निकल आए थे, वे बड़े निराश हुए.

पंखे की हवा में दूधिया सपनों की दुनिया में तैरने लगा. सुधा और शुभा अपनी कामयाबी पर खुश थीं.

शुभा को आज सुधा पर बहुत दुलार आ रहा था. दूधिए के सामने वाली कुरसी पर बैठ कर वह बोली, ‘‘देख ले बेटी, दूध भी है या चाचा को काली चाय ही पिलाएगी? न हो तो गणेशी की दुकान से दूध ले आ.’’

‘‘नहींनहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. पतीला दे दीजिए, मैं दूध लिए आता हूं,’’ दूधिया, जो कुछ पल पहले तमतमा रहा था, पालतू जानवर की तरह इशारा समझने लगा था.

नीचे जा कर दूधिया एक खालिस दूध ले आया. शुद्ध दूध वाले डब्बे से. ऐसा दूध तो शुभा को उस ने कभी दिया ही नहीं था.

ज्यादा खालिस दूध की चाय पीते समय शुभा स्वाद से चटखारे ले रही थी. तो सुधा अपनी मां की नजर बचा कर दूधिए की तरफ देख कर मुसकरा देती थी.

दूसरी बच्चियां भी पास ही बैठीं चाय का स्वाद ले रही थीं. अचानक शुभा बोली, ‘‘क्या कहें भैया, आप का पिछला रुपया तो दे नहीं पाए, एक लिटर और चढ़ गया. अब की पगार मिलेगी तो जल्दी निबटा देंगे.

‘‘इस बार तंगी में काली चाय पीतेपीते परेशान हो गए हैं,’’ कहतेकहते वह हंस पड़ी, जैसे काली चाय पीना भी खुशी की बात हो.

‘‘यह लो, आप काली चाय पी रही थीं? हमें क्यों नहीं बताया? हम कोई गैर हैं क्या? रुपयों की आप फिक्र न कीजिए, कल से मैं दूध देने खुद ही आ जाया करूंगा,’’ दूधिया का दिल बीन पर नाचने वाले सांप की तरह झूम रहा था.

दूधिया जाने को उठा तो शुभा ने कहा, ‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है? हां, याद आया, तुम्हारा दूध बांटने का समय बीत रहा होगा. जा बेटी, चाचा को नीचे तक छोड़ आ,’’ शुभा ने सुधा की ओर देख कर हौले से मुसकरा कर कहा.

सुधा ने जाते समय दूधिए की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘चाचा, कल थोड़ा फुरसत से आना.’’

दूधिया साइकिल पर बैठा तो उसे लगा जैसे उस के पैरों में पंख लग चुके हैं. उस ने 2 बार पीछे मुड़ कर देखा, दरवाजे पर खड़ी सुधा हाथ हिला कर उसे विदा कर रही थी. सुधा के चेहरे पर मुसकान थी, दूधिए के चेहरे पर वहां से जाने का दर्द.

बच्चियां चाय पी कर बहुत खुश थीं. 2-3 दिन में ही बिना दूध की चाय ने जीभ का स्वाद ही छीन लिया था. दूधिए के जाने के बाद उन्होंने रूखी रोटियां भी चाय के साथ शामिल कर लीं. इस से अच्छा रोटी निगलने का साधन घर में था ही नहीं और अब तो रोटियों का जुगाड़ भी बंद होने को था.

शाम का अंधेरा गली में फैलने लगा था और सामने के खंभे में लगा बल्ब फ्यूज हो गया था. शुभा इस अंधेरे में खुश ही थी, क्योंकि लाला अकसर रात 9 बजे के आसपास दुकान बंद कर के ही उस का दरवाजा खटखटाता था.

लाला हैरान रहता था कि 9 बजे भी मुकेश कभी घर पर नहीं मिला. अब वह बिला नागा वसूली के लिए आने लगा था. सोचता, कितने दिन भागोगे बच्चू, दुकानदारी इसलिए तो नहीं है कि सौदा लुटाया जाए.

शुभा उस से कई बार कह चुकी थी कि वे लोग कहीं भागे नहीं जा रहे हैं. वह नया सौदा देता जाए, पुराना और नया हिसाब एकदम चुकता कर दिया जाएगा. लेकिन लाला ने एक नहीं सुनी थी. वह दहाड़ा था, ‘‘जब पुराना हिसाब नहीं चुका सकते, तो नया क्या खाक चुकाओगे?’’

शुभा जानती थी कि लाला अपनी तोंद पर धोती की फेंट सही करता हुआ कुछ देर के बाद आने ही वाला है. पर वह 7 बजे ही आ कर दरवाजा खटखटाने लगा. उस ने सोचा था कि मुकेश 9 बजे तक खापी कर टहलने निकल जाता होगा, इसलिए उस के पहले ही पहुंचना ठीक रहेगा. रुपए न दिए तो ऐसी खरीखरी सुनाऊंगा कि कान बंद कर लेगा बच्चू. ऐसे मौकों पर दरवाजा ही बंद रहता था और ऊपर से कोई बच्ची कह देती थी, ‘‘पिताजी घर में नहीं हैं.’’

तब लाला चीख उठता था, ‘‘पिताजी जाएं जहन्नुम में, मेरा पैसा मुझे अभी चाहिए.’’

पर इस के आगे लाला बेबस हो जाता था, क्योंकि ऊपर से झांकने वाली बच्ची तब तक गायब हो चुकी होती. लिहाजा, वह भुनभुनाता हुआ लौट जाता. लेकिन अब वह इन्हें इतने सस्ते में छोड़ने को तैयार नहीं था.

उधर अब की बार कमान सुधा के बजाय उस की मां ने संभाली. मुसकराने की कोशिश करते हुए वह दरवाजे तक गई, फिर लाला को गुस्से में देख कर बोली, ‘‘सेठजी, मेहमान आए हुए हैं. मेहरबानी कर के कुछ कहिएगा नहीं, इज्जत का सवाल है.’’

मीठी मुसकान के साथ मीठी बोली सुन कर सेठ कुछ नरम पड़ गया.

धोती की फेंट से वह मुंह का पसीना पोंछने लगा. अपनी कंजी आंखों से वह शुभा को घूरता हुआ बोला, ‘‘ठीक है, फिर कब आऊं यही बता दो?’’

‘‘चाहे जब आइए, घर आप का है और अभी जाने की इतनी जल्दी भी क्या है. दुकान के काम से दिनभर के थकेमांदे होंगे. एक प्याला चाय पी लीजिए, फिर जाइएगा,’’ शुभा मुसकराई. उस की आंखों में भी बुलावा था. सेठ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि ऐसे प्यार भरे बुलावे को ठुकरा सकता.

सेठ पंखे के नीचे बैठ गया. जीना चढ़ने से हांफ गया था. उस की तोंद ऊपरनीचे हो रही थी, जिस को काबू में करने की कोशिश में वह दम साध रहा था कि सुधा ने मुसकरा कर पानी का गिलास सामने रख दिया.

एक घूंट में गिलास का पानी गटक कर सेठ कमरे की सजावट देखने लगा. 5 मिनट में चाय हाजिर थी. इस बार शुभा ने सामने की कुरसी पर बैठतेहुए चाय पीना शुरू किया तो पढ़ने का वास्ता दे कर लड़कियां कमरे से बाहर हो गईं.

चाय के साथसाथ शुभा के गुदाज जिस्म पर नजर गड़ा कर बैठे सेठ को लगा कि वह एक अरसे से ऐसे प्यार भरे माहौल के लिए तरस गया है. दिनरात बैल की तरह खटो, फिर भी बहुएं रोटी के साथ जलीकटी बातें परोसने से बाज नहीं आतीं. एक यह है जो कुछ भी नहीं लगती, लेकिन अपनेपन का झरना बहा रही है.

बातों ही बातों में समय की रफ्तार का उसे तब पता चला, जब एक घंटा बीत गया. न चाहते हुए भी सेठ उठ कर बोला, ‘‘अच्छा शुभाजी… अब चलूंगा. तनख्वाह तक रुपए मिल सकें तो ठीक है, न मिल सकें तो ज्यादा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है. फिर देखा जाएगा.’’

‘‘मैं तो चाहती थी कि आप खाना खा कर जाते. देख सुधा, आटे के कनस्तर में कुछ है? न हो तो बाजार से दौड़ कर आटा ले आ. चाचा पहली दफा यहां आए हैं, क्या भूखा भेजेगी?’’ शुभा मुसकरा कर अंगड़ाई लेते हुए बोली.

‘‘क्या आटा तक घर में नहीं है? मैं कोई पराया हूं, जो मुझे नहीं बताया. मैं जानता हूं, महीने के आखिरी दिन ऐसे ही कड़की के होते हैं. खैर, आज तो मैं नहीं खाऊंगा. हां, थोड़ी देर में मेरा नौकर सामान दे जाएगा. जब जरूरत हो, बता दिया करना,’’ कहते हुए लाला उठ खड़ा हुआ.

इस बार सुधा बोली, ‘‘हाय मां, चाचाजी जा रहे हैं. कम से कम दरवाजे तक इन्हें छोड़ तो आइए.’’

शुभा लाला को दरवाजे तक छोड़ने गई. उस ने हंस कर लाला से कहा, ‘‘फिर आइएगा कभी, आज तो आप की कोई सेवा न कर सकी.’’

लाला जातेजाते मुड़ कर देखता गया. शुभा दरवाजे पर खड़ी उसे देख रही थी. लाला की धोती कई बार पैरों में फंसने को हुई.

थोड़ी ही देर में लाला का नौकर आटा, दाल, चावल के साथ रिफांइड तेल और सब्जी भी दे गया था.

मुकेश के आने में अभी देर थी. रसोई में पकवानों की खुशबू बच्चियों के पेट की भूख और बढ़ा रही थी. यह सारा महाभोज उन की नजर में नकारा बाप को और भी नकारा कर गया था, मां का वजन उस की निगाहों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था.

सब से छोटी बेटी तो हैरानी से पूछ ही बैठी, ‘‘मां, कहां आज रोटी का जुगाड़ भी नहीं था और कहां इतनी सारी अच्छीअच्छी खाने की चीजें तैयार हो गईं. यह सब कैसे हो गया?’’

‘‘बेटी, सब वक्त की मेहरबानी है. जिस घर में मेहमान आते रहते हैं, उस घर में बरकत रहती है. बड़े अच्छे लोग होते हैं, जिन के घर मेहमान आते हैं,’’ शुभा ने मासूम बच्चियों को समझाया.

दूसरी बच्ची बोली, ‘‘मां, चाय और खानेपीने का सामान देने वाले मेहमानों के अलावा नोट देने वाले, कपड़े देने वाले और सुंदरसुंदर खिलौने देने वाले मेहमान क्या हमारे घर कभी नहीं आएंगे?’’

बच्ची को तसल्ली देते हुए शुभा बोली, ‘‘आएंगे बेटी, नोटों वाले मेहमान भी आएंगे. तुम अपने पिता से कहना कि अपने दोस्तों को भी कभीकभी घर लाया करें. क्या पता, उन्हीं के आने से रुपएपैसे भी मिलने लगें.’’

वैसे, बच्ची के मासूम सवाल पर शुभा का गला भर आया था. फिर आंसू छिपाने के लिए वह खिड़की की तरफ चली गई.

मुकेश के आने में अभी देर थी. दरवाजे के पास एक शराबी मदहोशी में लड़खड़ा रहा था. उस की जेब में नोटों की गड्डी झांक रही थी.

शुभा को लगा, अब बच्ची की चाह पूरी होने को है. उस ने झांक कर गली के दोनों छोरों की ओर देखा. अंधेरे में दूरदूर तक किसी आदमी की परछाईं भी नहीं थी. उस के चेहरे पर दिनभर की कामयाबी को याद कर एक मुसकान छा गई. अब वह जीना उतर कर नीचे जाने को तैयार थी.

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