रुक्मी ने दीवार पर टंगी लालटेन उतार कर जलाई और सदर दरवाजा बंद कर के आंगन में बिछी खटिया पर आ कर बैठ गई. चारों तरफ निगाह घुमाई, तो हर तरफ एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. पिछले 40 सालों से यह सन्नाटा ही तो उस के अकेलेपन का साथी रहा है.

अब तो रुक्मी को इस की इतनी आदत पड़ गई है कि इस सन्नाटे की भी आहटें उसे सुनाई दे जाती हैं, मानो सन्नाटा उस से बात करने की कोशिश करता हो.

रुक्मी ने लौ धीमी कर के लालटेन को फर्श पर टिकाया और खटिया पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगी.

55-56 साल पहले जब 12 बरस की रुक्मी इस घर में ब्याह कर आई थी, तब शहर से दूर कुदरत की गोद में बसे इस छोटे से गांव में उस के ससुर की इस पक्की हवेली के अलावा बाकी सभी घर कच्चे थे, लेकिन लोगों का आपसी प्यार बहुत पक्का था.

पूरा गांव एक संयुक्त परिवार की तरह मिलजुल कर रहता था और रुक्मी के ससुर बैजनाथ चौधरी परिवार के मुखिया की तरह ही यहां रहने वाले हर इनसान के सुखदुख का खयाल रखते थे.

परिवार में सासससुर के अलावा रुक्मी का पति गौरीनाथ और 4 ननदें थीं. धीरेधीरे ननदें अपनीअपनी ससुराल चली गईं और रुक्मी अपने सासससुर और पति के साथ इस हवेली में रह गई.

सासससुर ने हमेशा रुक्मी को खूब स्नेह दिया, लेकिन गौरीनाथ जैसेजैसे नौजवान हुआ, उस की उड़ानें अपने घर और गांव से निकल कर शहर तक होने लगीं. कालेज की पढ़ाई करने के लिए उसे शहर क्या भेजा गया कि वह पूरे तौर से शहर का ही हो कर रह गया.

चौधरी साहब ने कई बार बेटे से कहा कि वह गांव वापस आ कर यहां का कारोबार संभाले, लेकिन उस ने साफ कह दिया कि इतना पढ़नेलिखने के बाद अब वह खेतीबारी का देहाती काम नहीं करेगा.

बेटे के इनकार से निराश और अपनी बढ़ती उम्र से लाचार चौधरी साहब अपनी सारी जमीनजायदाद बेचने के बारे में सोचने लगे, तब एक दिन रुक्मी ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, आप अपने पुरखों की जमीन मत बेचिए. मैं आप को वचन देती हूं कि इस की पूरी देखभाल मैं करूंगी.’’

अपनी बहू की बात सुन कर पहले तो बैजनाथ चौधरी ने उसे जमीनजायदाद से जुड़ी जिम्मेदारियों की मुश्किलें बताते हुए इस  झमेले में न पड़ने को कहा, लेकिन रुक्मी ने खेतखलिहानों की देखभाल करते हुए कुछ ही समय में अपनी काबिलीयत का लोहा चौधरी साहब को मनवा दिया और उन्होंने बहू को सारा काम देखने की आजादी दे दी.

शहर जाने के शुरू के दिनों में तो गौरीनाथ महीने 2 महीने में गांव आता रहता था और यहां से अनाज और रुपए भरभर कर शहर ले जाता था, लेकिन जब रुक्मी की बेटी आशा का जन्म हुआ, तब चौधरीजी ने बेटे से कहा कि वह अनाज तो यहां से चाहे जितना ले जा सकता है, लेकिन पैसे पर अब उस का कोई हक नहीं है, क्योंकि यह पैसा रुक्मी की कड़ी मेहनत का फल है, इसलिए उस पर रुक्मी और उस की बेटी का हक है.

बाबूजी की बात सुन कर गौरीनाथ चिढ़ गया, लेकिन पिता पर कोई बस नहीं चलता था, इसलिए रुक्मी को शहर के खर्चों और अपनी परेशानियों के बारे में बता कर रुपए देने के लिए दबाव डालने लगा, लेकिन रुक्मी ने अपने ससुर की बात की इज्जत रखते हुए पति को पैसे देने से साफ इनकार कर दिया.

पैसा मिलना बंद होने के चलते धीरेधीरे गौरीनाथ ने गांव आना बहुत कम कर दिया. चौधरी साहब बेटे की नीयत को सम झ गए थे, इसलिए उन्होंने अपनी जमीन और पुश्तैनी हवेली रुक्मी के नाम कर दी. साथ ही, आशा की पढ़ाईलिखाई का भी पूरा ध्यान रखते हुए उस का नाम गांव के स्कूल में लिखवा दिया और थोड़ी बड़ी होने पर उस के लिए एक मास्टर रख कर घर में भी उस की पढ़ाई का पूरा इंतजाम करा दिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि अपनी मां की तरह अनपढ़ रह कर आशा को भी जिंदगी में तकलीफें उठानी पड़ें.

जब आशा 20 साल की थी, तब रुक्मी के ससुर का देहांत हो गया. सास पहले ही नहीं रही थीं. पिता के देहांत के बाद गौरीनाथ ने रुक्मी से कहा कि वह तो गांव में रह नहीं पाएगा, इसलिए यहां की जमीन और हवेली बेच कर शहर में बंगला खरीदेगा, जिस पर रुक्मी ने कहा कि वह बाबूजी को दिए हुए अपने वचन को निभाएगी और मरते दम तक बाबूजी की इस हवेली को बिकने नहीं देगी.

उस समय तो गौरीनाथ शहर वापस लौट गया, लेकिन 2 साल बाद अचानक वह आशा के जन्मदिन पर बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े और उपहार ले कर गांव आया और रुक्मी के लिए भी साड़ी, चूडि़यां और लालीपाउडर ले कर आया. वह 4 दिनों तक घर पर रुका था और रुक्मी से ढेरों बातें भी की थीं.

रुक्मी को लगा था कि उस का पुराना गौरी वापस आ गया है, लेकिन वह गलत थी, क्योंकि उस का गौरी तो उस से नाता तोड़ने के लिए आया था.

शहर वापस जाने से एक दिन पहले जब रुक्मी ने रोते हुए गौरी से गांव लौट आने को कहा, तो उस ने रुक्मी को अपने पास बैठा कर बड़े प्यार से उस का हाथ थाम कर कहा था, ‘‘रुक्मी, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं, लेकिन अब शहर छोड़ कर नहीं आ सकता और तुम्हें शहर ले नहीं जा सकता, क्योंकि तुम देहातन हो और शहर के तौरतरीके नहीं जानती, इसलिए मैं अब एक पढ़ीलिखी शहरी लड़की से शादी करूंगा, जो शहर में मेरा साथ दे सके.’’

यह कह कर गौरीनाथ ने एक कानूनी कागज आगे करते हुए रुक्मी से उस पर अंगूठा लगवा कर बताया कि वह रुक्मी से तलाक ले रहा है, इसलिए अब वह यहां के खेतों और हवेली की जिम्मेदारियों से छुटकारा पा कर अपने घर वापस जा सकती है.

गौरीनाथ की पूरी बात रुक्मी ने बड़े आराम से सुनी, मगर जब उस ने गांव छोड़ कर जाने की बात कही, तो रुक्मी अपना आपा खो बैठी और बोली, ‘‘ब्याह से पहले अम्मांबाबू कहते थे कि शादी के बाद तेरी ससुराल ही तेरा घर होगा. मैं तो इसे ही अपना घर सम झती रही हूं और बाबूजी भी मु झे अपनी बिटिया जैसा स्नेह करते रहे.

‘‘अब मैं तुम्हें बता देती हूं कि यह हवेली और खेत बाबूजी ने मेरे नाम लिख दिए हैं, सो अब यही मेरा घर है. तुम मु झे यहां से नहीं निकाल सकते.’’

रुक्मी की बात सुन कर गौरीनाथ बगलें  झांकने लगा. उसे यह आज तक नहीं मालूम था कि उस के बाबूजी ने अपनी जायदाद का हकदार बेटे को नहीं, बल्कि अपनी बहू को बना दिया था.

गौरीनाथ ने रुक्मी से वसीयतनामा दिखाने को कहा, मगर शहरी गौरीनाथ की देहातन पत्नी ने उसे जवाब दिया कि वसीयतनामा तो अब वह तलाक के समय कचहरी में ही दिखाएगी.

अपनी पत्नी के तेवर देख कर गौरीनाथ ने आगे कोई बहस नहीं की. उस का अंगूठा लगा हुआ तलाकनामा ले कर शहर वापस चला गया.

गौरीनाथ को तो जवाब दे दिया था कि रुक्मी इस हवेली को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाएगी, लेकिन उस का मन तो अपने पति के बहुत दूर चले जाने के एहसास से तड़प रहा था. जब गौरीनाथ ने ही उसे छोड़ने का फैसला कर लिया है, तो इस हवेली और जमीन से क्या लगाव.

रुक्मी की इच्छा हुई कि सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया से ही चली जाए, लेकिन आशा का चेहरा देख कर उस ने खुद को संभाला और कलेजे पर पत्थर रख कर इस सचाई को स्वीकार कर लिया कि पति अब उस का नहीं रहा है.

कुछ ही दिनों में गौरीनाथ द्वारा रुक्मी को छोड़ कर शहरी मेम से ब्याह करने की खबर पूरे गांव में फैल गई, लेकिन गांव वालों ने अपने चौधरी साहब की बहू को पूरा संरक्षण देते हुए उसे बेफिफ्री से हवेली में रहने के लिए कहा और हमेशा उस का साथ देने का वचन दिया.

आज तक गांव वाले अपना वचन निभा रहे हैं और जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पूरा गांव उस के साथ खड़ा हो जाता है.

आज से 40 साल पहले एक बार गौरीनाथ अपनी दूसरी पत्नी और बेटे को ले कर गांव आया था और रुक्मी को जमीनजायदाद अपने बेटे के नाम करने का दबाव डालने लगा था. तब गांव की पंचायत ने गौरीनाथ को अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि गांव की जमीन और हवेली पर केवल रुक्मी बहू का और उस के बाद आशा का हक है, इसलिए वह अपने शहरी परिवार को ले कर यहां से जा सकता है.

उस दिन के बाद गौरीनाथ ने अपनी पत्नी और बेटी की कोई खोजखबर नहीं ली. आशा के ब्याह के समय भी वह नहीं आया था. रुक्मी ने अकेले ही बेटी का कन्यादान किया था.

आशा का ब्याह बगल के गांव में हुआ है और उस के ससुराल वाले और पति बहुत सज्जन लोग हैं, इसलिए आशा अपनी मां से मिलने आती रहती है और दामाद भी जरूरत पड़ने पर रुक्मी की मदद के लिए पहुंच जाता है और फिर पूरे गांव का सहयोग तो है ही रुक्मी को. उस ने भी गांव वालों के लिए अपनी हवेली के फाटक खोल दिए हैं.

हवेली के बड़े कमरे में सुबह बच्चों की पाठशाला लगती है और शाम को उसी जगह प्रौढ़ शिक्षा केंद्र बन जाता है. हवेली का पीछे का हिस्सा और जमीन रुक्मी ने स्कूल के लिए दे दी है, जिस से उस के गांव वालों को खेतीबारी में बहुत मदद मिलती है और इसलिए पूरा गांव रुक्मी बहू के गुणगान करते नहीं थकता है.

लेकिन गांव वालों की इतनी इज्जत और स्नेह पाने के बाद भी कई बार रुक्मी को अकेलापन कचोटने लगता है और वह गौरी को याद कर के बिलखने लगती है. यह बेचैनी तब से और भी बढ़ गई है, जब से उसे खांसीबुखार ने घेरा है.

आशा और उस का पति जब पिछले महीने उस से मिलने आए, तो मां को बीमार और कमजोर देख कर वह लोग जिद कर के उस को पास के कसबे के अस्पताल में जांच करवाने ले गए.

डाक्टर ने बताया कि टीबी के चलते दोनों फेफड़े गल चुके हैं और अब रुक्मी की जिंदगी के कुछ ही दिन बचे हैं. आशा ने रोते हुए मां से अपने साथ चलने की जिद की, तो उस ने प्यार से बेटी को मना करते हुए कहा, ‘‘बिटिया, अब अंत समय में मैं अपनी देहरी छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मेरी फिक्र न करो, ये गांव वाले मेरा पूरा खयाल रखते हैं. बस, एक इच्छा रही है कि एक बार तेरे बापू को देख लेती.’’

लाख कहने पर भी जब मां साथ जाने के लिए नहीं मानीं, तो आशा ने इस उम्मीद से पिता को फोन किया कि रुक्मी की हालत के बारे में सुन कर शायद उन का मन पसीज जाए और वे मां से मिलने आ जाएं, पर गौरीनाथ ने बेटी को दोटूक जवाब देते हुए कहा, ‘‘मेरा उस से अब कोई रिश्ता नहीं है. तुम्हारी मां है, तुम जानो.’’

रुक्मी की देखभाल करने के लिए आशा को उस के पास छोड़ कर रुक्मी का दामाद अपने गांव चला गया. शाम को रुक्मी ने आशा से कहा, ‘‘बिटिया, मेरे बक्से में एक लाल साड़ी रखी है, वह मु झे पहना दो और सिंदूर की डिबिया ले आओ.’’

अपनी मां की इस मांग से परेशान आशा ने तुरंत अपने पति को फोन कर के जल्दी आने को कहा और फिर अपने आंसू पोंछते हुए मां के बक्से में से लाल साड़ी निकाल कर रुक्मी को पहना कर उन के बाल संवारे और सिंदूरदानी और आईना मां के सामने कर दिया.

उस समय न जाने कहां से रुक्मी के बेजान शरीर में इतनी ताकत आ गई कि  झट से चारपाई पर बैठ कर उस ने कंघे से अपनी मांग में सिंदूर भरा और फिर उठने की कोशिश में लड़खड़ा कर चारपाई पर गिर गई.

आशा ने मां को ठीक से लिटाना चाहा, तो बेटी का हाथ पकड़ कर वह बोली, ‘‘मु झे जमीन पर बिठा दो.’’

आशा ने बहुत सम झाया और आराम करने को कहा, लेकिन रुक्मी ने जिद पकड़ ली, तो आशा ने अपनी मां को सहारा दे कर फर्श पर बिठाया और तभी रुक्मी की आंखें पलटने लगीं और वह वहीं पर गिर पड़ी.

थोड़ी ही देर में रुक्मी के देहांत की खबर गांवभर में फैल गई और उन के अंतिम दर्शनों के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा, लेकिन रुक्मी को जिंदगीभर जिस का इंतजार रहा, वह गौरीनाथ पत्नी के आखिरी समय पर भी नहीं आया.

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