अपने पान के खोखे के भीतर बैठे तेज गरमी से उबलते उमराव का हाथ बारबार बढ़ी हुई दाढ़ी पर जाता, जो बेवजह खुजली कर के गरमी की बेचैनी को और बढ़ा रही थी. अकसर उस के खोखे तक लोग आते तो उन के लिहाज से वह हाथ धोता, मगर वे भी जाने क्यों पास की बड़ेबड़े शीशों वाली नई बनी दुकान की ओर मुड़ जाते. उस दुकान का मालिक सरजू भी एकदम टिपटौप था.
मगर उमराव की निगाह में सरजू कटखना कुत्ता था. उस ने दुकान में हजारों रुपए के तो शीशे लगवाए थे, माल ठसाठस भरा था, पर उमराव का रुपए 2 रुपए का माल भी बिक जाए तो उस की आंख में सूअर का बाल उग आता था. जैसे कमानेधमाने का हक सिर्फ सरजू को ही है. वह 2-4 बार धमकी भी दे चुका था, ‘‘दुकान उठवा कर फिंकवा दूंगा.’’
सरजू की दुकान पर आने वाले नशेड़ी और गुंडे, लफंगे उस की दुकान को न केवल हिकारत की नजर से देखते, बल्कि अबेतबे कह कर उस से पानीवानी भी मांगते यानी पान खाओ सरजू के यहां और बेगारी करे उमराव.
अरे भाई, कभीकभी एकाध बार ही बोहनी करवाओ तो उसे पानी देने में कोई तकलीफ नहीं, मगर खाली रोब कौन झेले, इसीलिए तो वह कभीकभार अपनेआप को आदमी समझने की गलती कर बैठता था और गाली खाने के साथ एकाध बार थप्पड़ भी खा चुका है.
उमराव बेचारा मुश्किल में था. उस की जिंदगी में जैसे रोब ही बदा था. गांव में ठाकुरों का रोब, यहां शोहदों का रोब. गांव में लोगों ने खेत हथियाए तो वह शहर आया. मगर शहर गांव का भी लक्कड़दादा निकला. यहां के सांपों के डसने का तो कोई मंत्र ही नहीं था.
दुकान पर ही जलालत होती तो वह झेल ले जाता, पर यहां तो उस के किराए की खोली भी एक मुसीबत थी, इसलिए नहीं कि वह आरामदेह न हो कर तंग, सीलन भरी और टीन की तपने वाली छत थी, बल्कि इसलिए कि उस की बिटिया बुधिया धीरेधीरे जवानी की डगर पर कदम रख रही थी.
कभीकभी उमराव सोचता कि काश, गरीबों की बेटियां जवान ही न होतीं तो कितना अच्छा होता. फिर तो गली के छिछोरे लफंगे उस की खोली के सामने ठहाके न लगाते और न ही सीटियां बजाते.
पर जिस बात पर बस नहीं है उस का किया ही क्या जाए. उस के बस में केवल इतना था कि वह 2-4 बार दुकान में ताला लगा कर खोली की तरफ चला जाता. कभीकभी तो खोली के सामने ऐसा जमघट होता कि उस का धड़कता दिल एकदम तेज दर्द करने लगता. मगर वह खोली के दरवाजे तक जाने की हिम्मत न कर पाता और उलटे पैर लौट आता.
हालांकि उसे बुधिया पर पूरा यकीन था. वह जानता था कि वह बेचारी बिगड़ी नहीं है और यही खयाल उसे और बेबस कर जाता, काश, उस में इतनी ताकत होती कि खोली के आगे ठहाके लगाने वालों के थप्पड़ रसीद कर सकता.
इस तरह की लाचारी में तो बुधिया को अनचाहे आंसू पीने के सिवा कोई चारा नहीं था और बूढ़े बाप की बेबसी के इस दौर में कुछ भी घट सकता था.
उमराव इन खयालों में बेचैन हो उठा. पड़ोस की दुकान पर सिगरेट पीता एक लड़का मोटरसाइकिल की गद्दी पर बैठा धुआं इस अंदाज से फेंक रहा था कि उमराव को अपना वजूद ही धुआंधुआं नजर आने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह लड़का अपनी उल्लुओं जैसी आंखों से उसे ही घूर रहा हो.
उमराव ने इस विचार के आते ही अपने सीने में कुछ दबाव महसूस किया और सोचा कि हो सकता है कि खोली का भी यही हाल हो. वह तो फिर भी दुकान बंद कर सकता है, पर बेचारी बुधिया क्या करेगी. इसी खयाल के तहत उस ने खोखे को ताला मारा और गरमी की दोपहर के बावजूद खोली की ओर चल दिया.
रास्ते में लू के थपेड़ों और चुहचुहाते पसीने के बावजूद उमराव कुछ ताजगी महसूस करने लगा. यहां कम से कम उसे घूरने या दुत्कारने वाला तो कोई नहीं था. उस ने ताजा हवा फेफड़ों में भरी और मन को दिलासा दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं होने वाली है. हिम्मत से काम लेने की जरूरत है. ऐसे तो दुनिया का चलन ही गड़बड़ है, पर खुद ठीक हो तो सब ठीक है.
थोड़ी ही देर में उमराव अपनी खोली के दरवाजे पर खड़ा था. वहां सन्नाटा था. दरवाजा भिड़ा हुआ था, पर फिर भी कमरे का काफी हिस्सा बाहर से नजर आ रहा था.
पहले तो उसे बुधिया पर गुस्सा आया कि सांकल चढ़ा लेनी थी, कायदे से. ऐसी लापरवाही को इशारा समझ कर लफंगों की हिम्मत बढ़ती है. मगर दूसरे ही पल उस ने सोचा कि नहीं, वह भी हाड़मांस की बनी है. पूरी खुली दुकान में उसे गरमी लगती है तो यहां भट्ठी सी तपती खोली में बुधिया को भी ताजा हवा न सही, गरमी से राहत की जरूरत महसूस होती होगी.
अपनी गरीबी पर उस का दिल रो उठा. कितने सपनों से इसे पाला था. जब गोद में ही थी, तब मरतेमरते इस की मां ने इसे कभी कोई तकलीफ न होने देने का वचन ले कर उमराव की गोद में अपनी आंखें बंद कर ली थीं. कितने अरमान थे, एकलौती बेटी को ले कर. कहां अब उसे भूखे भेड़ियों से बचाना ही एक टेढ़ा मसला है.
उमराव ने देखा कि भोली हिरनी सी बुधिया अपने बाल संवार रही थी, दरवाजे की ओर पीठ कर के. वह एक पल को सिहर उठा. उसे क्या पता कि मां की कमी महसूस हुई. वह होती तो बेटी की कायदे से देखभाल करती. तब उमराव बेफिक्र हो कर दुकानदारी कर सकता था. मगर अब तो उस का दिल न दुकानदारी में लग पाता और न खोली में.
खोली के दरवाजे पर उस के खांसने से बुधिया ने मुड़ कर देखा. फिर दुपट्टा ठीक करते हुए बापू को बैठने का इशारा करती हुई पानी का गिलास उसे पकड़ाने लगी. पानी पी कर उसे कुछ चैन आया. कितनी समझदार है, बुधिया. काश, उस के सपनों की शान पर यह चढ़ पाती. वह धीरे से मुसकरा दिया.
उमराव की मुसकराहट देख कर बुधिया खिल उठी. बरबस उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों, क्या बात है बापू, आज बड़े खुश हो?’’
‘‘हां बेटी, एक बात मेरे मन में है, अगर तू माने,’’ वह हंस पड़ा.
‘‘बोलो बापू, क्या सोचा है?’’ कुछ मुसकराते हुए बुधिया ने कहा.
‘‘मुझे हमेशा तेरी चिंता लगी रहती है. मैं सोचता हूं कि अपने खोखे के पास एक बैंच डाल दूं और एक चाय की दुकान खोल दूं. तू चाय बनाना और मैं पान बेचूंगा. तेरे पास चाय पीने वाले मेरे पास पान खाएंगे. इसी तरह अपनी दुकानदारी चल निकलेगी. यहां चाय की कोई दुकान है भी नहीं,’’ उमराव एक ही सांस में कह गया.
‘‘हां, बापू, ठीक है. मेरा दिल भी वहां लगा रहेगा. चार पैसे भी जमा होंगे,’’ बुधिया बहुत खुश हुई.
‘‘हां, पर एक बात का खयाल रहे, कपड़ेलत्ते जरा साफ पहनने होंगे. वहां मातमी सूरत बना कर न बैठना, समझी?’’ पड़ोसी पान वाले की दुकान के चलने का राज समझ कर उमराव ने कहा.
‘‘हांहां, सब समझती हूं. बस एक तिरपाल डलवानी पड़ेगी. 2 मटके पानी और बैंच. कुल्हड़ों का इंतजाम कर लेना, गिलास धोने लगी तो चाय बनाना मुश्किल होगा…’’ बुधिया बोली, ‘‘वह चाय बनाऊंगी कि लोग खिंचे चले आएंगे.’’
उमराव का सोचा वाकई सच निकला. दुकान चल निकली थी. जो मोटरसाइकिलें पहले पड़ोसी की दुकान पर खड़ी होती थीं, वह अब बुधिया की चाय की दुकान पर खड़ी होने लगीं.
वह मुसकरा कर चाय देती. लोग अपने दोस्तों से कहते, ‘‘भई, चाय हो तो ऐसी.’’
ठंडे पानी के साथ बुधिया की तिरछी मुसकान का भी कुछ असर था. कई लोग एक प्याला चाय पीने का इरादा कर के आते और 2-2 पी कर जाते, क्योंकि बैठने, बतियाने के अलावा अखबार भी पढ़ने को मिल जाता. चलते समय वह बापू की दुकान की ओर इशारा कर देती और लोग वहीं से पान, सिगरेट खरीदते.
कल तक सुनसान रहने वाली उमराव की दुकान खूब चलने लगी थी. वह सोचता था कि अब कुछ ही दिनों में वह भी पड़ोसी की तरह अपनी दुकान में नीचे से ऊपर तक शीशे ही शीशे लगवा लेगा. पड़ोसी सरजू को लगता था कि उस की मक्खियां मारने की बारी आ गई है.
अब पैसे के आने के साथ बुधिया के जिस्म और कपड़ों पर भी निखार आ रहा था. उमराव को दुकान में बैठने वाले शोहदों से अब कोई तकलीफ नहीं थी और न ही बुधिया की तिरछी चितवन पर ही उस की छाती में कोई दर्द उठता था. वह कारोबार के गुर जान गया था. वह पड़ोसी की ठप होती दुकानदारी का मजा लेना भी जान गया था.
अभी कल ही पड़ोसी ने उमराव की मुसकान पर गुस्सा हो कर कुछ अंटशंट बका था तो वह तो चुप रहा था, पर बुधिया की दुकान पर चाय के बहाने हर रोज बैठने वाले लाल मोटरसाइकिल वाले हट्टेकट्टे समीर ने सरजू का कौलर पकड़ कर धक्का देते हुए कहा था, ‘‘अबे, बूढ़ा समझ कर उमराव पर टर्राता है. खबरदार, जो आइंदा उस की ओर देखा भी. क्या गरीब को रोटीरोजी का हक ही नहीं है? वह दो पैसे कमाने लगा तो तेरे पेट में मरोड़ होने लगी. अब की बार कुछ कहा तो दुकान की एकएक चीज नाली में पड़ी मिलेगी.’’
सरजू समझ गया था. बुधिया उसे अंगूठा दिखाती हुई हंस रही थी. सरजू तो जरूर जलाभुना होगा, मगर उमराव को उस पल बुधिया में अपना पहरेदार रूप नजर आया. वह सोचने लगा कि सालभर ऐसी ही कमाई हो जाए, तो फिर वह बुधिया के हाथ पीले करने में देर नहीं करेगा.