आ ज सुबहसुबह जब पूरब दिशा से सूरज उगा और लोग अपने डब्बों जैसे छोटे घरों से निकल कर बाहर आने लगे, तो सब की नजर पूरे शहर में लगे एक नए इश्तिहार पर पड़ी.

उस इश्तिहार में 3 तरह के लोगों की तसवीरें थीं. पहले वे कुछ लोग, जिन को सब पहचानते थे. उस से छोटी तसवीरों वाले दूसरी तरह के वे लोग थे, जिन की शक्लें केवल इधरउधर की जानकारी रखने वाले लोग पहचानते थे. सब से छोटी तीसरी तरह की तसवीरें उन लोगों की थीं, जिन को उन के परिवार के बाहर

2-4 लोग ही पहचानते थे. इन्हीं तीसरी तरह के लोगों ने आपस में चंदा इकट्ठा कर के इश्तिहार लगवाने के लिए पैसे जुटाए थे. ‘बाप बड़ा न भईया, सब से बड़ा रुपईया’ वाली कहावत में ऊपर वाले से भी ज्यादा गहरा विश्वास रखने वाले लोग इस ‘महंगे इश्तिहार और सस्ते विज्ञापन’ पर बिना वजह पैसा खर्च नहीं करते हैं.

इन में से जिन सब से छोटी तसवीरों वालों को मैं पहचानता हूं, इन के बारे में एक बात कमाल की है. इन के धंधे गोरे हैं या काले, यह तो किसी को ठीक से नहीं पता, लेकिन इन के धंधे करामाती जरूर हैं. इन सब की दिखने वाली आमदनी अठन्नी और दिखने वाला खर्चा रुपईया है.

छोटी तसवीरों वाले लोग अपने से बड़े साइज की तसवीरों वाले लोगों के भरोसे बैठे हैं और मझोले साइज की तसवीरों वाले लोग बड़ी तसवीरों वालों की मेहरबानी पर जिंदा हैं.

छोटी तसवीरों वाले लोगों के लिए बड़ी तसवीरों वाले लोग ऊपर वालों से कम नहीं हैं. इन ऊपर वालों के चलते ही इन का लोक सुरक्षित है, परलोक की चिंता करता ही कौन है?

ये सब से छोटी तसवीरों वाले लोग गारंटी से मूर्ख होते हैं. इन को चापलूसी के अलावा जिंदगी जीने का और कोई रास्ता आता भी नहीं है.

ये लोग दो टके के फायदे के चक्कर में रोज घपला करते हैं. छोटी तसवीरों वालों का रिस्क ज्यादा होता है. फायदा होने पर फायदा कम और नुकसान होने पर इन की बलि ही सब से पहले चढ़ती है. कोई भी गलती हो जाए, छोटी तसवीरों वाले बेचारे लोग अपनेअपने ऊपर वालों द्वारा बुरी तरह से रगड़े जाते हैं.

इश्तिहारों में तसवीर जितनी छोटी होगी, तसवीर को पोस्टरों से गायब करना उतना ही आसान होगा. हवा बदलते ही तसवीर जितनी छोटी होगी, वे लोग पोस्टर से उतनी जल्दी उड़ भी जाते हैं.

ये छोटी तसवीरों वाले लोग बेचारे तो हैं, लेकिन शरीफ कतई नहीं हैं. तिकड़मी हैं, तभी तो इश्तिहार लगवाते फिरते हैं. इन थर्ड कैटेगरी लोगों का आमतौर पर कोई एक फिक्स ऊपर वाला होता नहीं है. बदलते मौसम के हिसाब से इन के ऊपर वाले भी बदलते रहते हैं.

उस इश्तिहार में सचाई का रंग छोड़ कर बाकी सारे रंगों का बड़े करीने से इस्तेमाल किया गया था. इस इश्तिहार में ऐसेऐसे दावे किए गए हैं, जो बातें केवल दूसरों को मूर्ख समझने वाले मूर्ख ही कह सकते हैं. इश्तिहार में वादे ऐसेऐसे, जिन को ऊपर वाला भी चाहे तो इतने कम समय में पूरा नहीं कर पाएगा.

शब्द, शब्द हैं साहब, इन से कुछ भी कह दो. शब्दों में कहां इतनी ताकत कि झूठों को झूठ कहने से रोक लें. शब्द कब झूठों की कलम या जबान से बाहर आने से इनकार कर पाते हैं. शब्द अगर चाहें भी तो समझने वालों को अपनी सुविधा से मतलब निकालने से रोक नहीं पाएंगे.

इन इश्तिहारों का फायदा सिर्फ और सिर्फ उन लोगों को होगा, जिन की तसवीरें इन में छपी हैं. झूठे इश्तिहार को सच मानने वालों का फायदा इश्तिहार लगवाने वाले उठाएंगे. झूठ को सच मानने वाले पहले से मूर्ख हों या न हों, अब मूर्ख कहलाएंगे.

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