सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’

उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन…

लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे

हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था.

वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास.

धारावी की झोपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी.

काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था.

इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था.

जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था.

जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज ?ागड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’

जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी.

कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझसे कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया.

रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं.

उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख

कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं.

आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मु?ो याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था.

उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी

2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया.

मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’

‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा.

‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी.

‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा.

‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसम?ाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’

‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’

इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा.

‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया सम?ा लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बो?ा उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

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