हालांकि फैसला सुनाते समय बिंदा प्रसाद उर्फ ‘भैयाजी’ का मन उन्हें धिक्कार रहा था, पर हमेशा की तरह उन्होंने अपने मन की आवाज को यों ही चिल्लाने दिया. इस मन के चक्कर में ही उन के हालात आज ऐसे हो गए हैं कि अब गांव में उन्हें कोई पूछता तक नहीं है. वे अब गांव के मुखिया नहीं थे, पर जब उन के पिताजी मुखिया हुआ करते थे, तब शान ही कुछ और थी.कामती भले ही छोटा सा गांव था, पर एक समय में इस गांव में बिंदा प्रसाद के पिताजी गया प्रसाद की हुकूमत चलती थी.
वे अपनी नुकीली मूंछों पर ताव देते हुए सफेद धोतीकुरते पर पीला गमछा डाल कर जब अपनी बैठक के बाहर दालान में बिछे बड़े से तख्त पर बैठते थे, तो लोगों का मजमा लग जाता था.गांव में किसी के भी घर में कोई भी अच्छाबुरा काम होता, तो वह उस की इजाजत सब से पहले गया प्रसाद से ही लेने आता था. गया प्रसाद हां कह देते तो हां और अगर उन्होंने न कह दिया तो फिर किसी की मजाल नहीं कि कुछ कर ले.
वे कहीं नहीं जाते थे, दिनभर अपने तख्त पर बैठेबैठे हुक्म बजाते रहते थे.बिंदा प्रसाद को याद है कि एक बार उन के पिताजी गया प्रसाद को शहर की ओर जाना था. बहुत दिनों बाद वे घर से निकल रहे थे. तांगा अच्छी तरह सजा कर तैयार कर दिया गया था.
गया प्रसाद को सिर्फ तांगे की सवारी ही पसंद थी. वैसे तो उन के घर पर एक कार भी थी, जिसे बाकी लोग ही इस्तेमाल किया करते थे, पर वे कभी उस में नहीं बैठे थे. गया प्रसाद का तांगा गांव के रास्ते से निकला. थोड़ा सा आगे सड़क के किनारे बने किसी घर की कंटीली बाड़ से उन का कुरता फट गया और वे आगबबूला हो गए.
उस घर में रहने वाला परिवार गया प्रसाद के पैरों पर लोट गया और माफी की गुहार लगाता रहा.गया प्रसाद ने उस परिवार को माफ भी कर दिया, पर उन्होंने शहर जाना छोड़ कर सब से पहले अपने आदमियों को बुला कर सड़क के किनारे लगी उस बाड़ को हटवाया.गांव के बहुत सारे लोग, जो रोजाना इस परेशानी से जूझ रहे थे, उन्होंने गया प्रसाद के इस काम के लिए उन का शुक्रिया अदा किया.गया प्रसाद जब तक जिंदा रहे, तब तक उन की शान बनी रही, पर उन के गुजर जाने के बाद धीरेधीरे इस शान में ग्रहण लगता चला गया.
इस के बाद बिंदा प्रसाद को मुखिया बनाया गया, पर सब उन्हें ‘भैयाजी’ कहते थे. वे अपने पिताजी से अलग थे. वे चूड़ीदार कुरतापाजामा और उस के ऊपर काली बंडी पहनते थे. वे हलकी दाढ़ीमूंछ रखते थे, जो उन्हें रोबीला बनाती थी.काफी दिनों तक तो लोग ‘भैयाजी’ को भी वैसे ही स्नेह देते रहे और उन से पूछ कर ही हर काम करते रहे, पर बाद में यह कम हो गया.
गांव के बच्चे शहर पढ़ने जाते थे और वहां से कुछ नया सीख कर आते थे. बच्चियां भी साइकिल से पढ़ने जाती थीं. शासन उन्हें साइकिल से ले कर ड्रैस तक दे रहा था.नए बच्चों में बिंदा प्रसाद की इस अघोषित गुलामी की प्रथा को ले कर गुस्सा पनप रहा था. पर ‘भैयाजी’ की नसों में जो खून दौड़ रहा था, वह इस सब को स्वीकार नहीं कर पा रहा था.‘भैयाजी’ के अपने बच्चे भी बाहर पढ़ रहे थे. वे अपने पिताजी को समझाते थे कि अब जमाना बदल गया है. कोई किसी का गुलाम नहीं है.
अपनी इज्जत बनाए रखनी है, तो इन के साथ मिल कर चलो.दूसरी तरफ ‘भैयाजी’ की बढ़ती उम्र के साथ गांव के लोग उन से अब पंचायत भी नहीं करा रहे थे. ज्यादातर मामले वे अपनी समाज की पंचायत में ही सुलझा लेते या फिर ग्राम पंचायत में बैठक हो जाती. ‘भैयाजी’ इसे अपनी शान के खिलाफ मान रहे थे. वे दिनभर तख्त पर बैठे रहते, पर 2-4 लोगों को छोड़ कर कोई उन से मिलने तक नहीं आता था.
गांव की एक सरोज काकी की एकलौती बेटी सावित्री ने कालेज में फर्स्ट आ कर गोल्ड मैडल जीता था. गांव में जश्न मनाया गया. सावित्री के साथ पढ़ने वाली लड़कियां भी गांव में आ कर इस जश्न में शामिल हुईं. बड़ीबड़ी गाडि़यों में बैठ कर कालेज के प्रोफैसर और अखबार वाले भी आए. सावित्री देखते ही देखते हीरो बन गई थी. ‘भैयाजी’ को भी सरोज काकी ने जश्न में बुलाया था, पर वे नहीं गए.
कल ही ‘भैयाजी’ की शादी के बाद पहली बार गांव में किसी और दूल्हे ने घोड़ी पर बैठ कर बरात निकाली थी. डीजे भी बज रहा था और जनरेटर से रोशनी भी की जा रही थी. ‘भैयाजी’ से यह सब बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन्होंने उसे रोकने की कोशिश नहीं की. वे जानते थे कि ऐसा कर के वे कानूनी दांवपेंच में उलझ जाएंगे, पर उन के मन में एक टीस पैदा हो चुकी थी. वे अपनी और अपने पुरखों की हो रही इस बेइज्जती को सहन नहीं कर पा रहे थे. उन का मन अब काम में भी नहीं लगता था.
वैसे, ‘भैयाजी’ की खेतीकिसानी बहुत थी. दर्जनों नौकरचाकर काम करते थे. ‘भैयाजी’ खेत तो कभीकभार ही जाते थे, पर हिसाबकिताब पुख्ता रखते थे. मजाल है कि कोई उन की इजाजत के बिना एक बोरा भूसा भी ले जाए.भैयाजी की सारी खेतीकिसानी तख्त पर बैठेबैठे ही हो जाती थी. पहले दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता था, पर अब उन की बैठक व्यवस्था खत्म सी हो चुकी है, तब उन्हें दिन काटना मुश्किल जान पड़ने लगा. वे इस का कुसूर गांव वालों और शहर में पढ़ रहे नौजवानों पर डालते थे.रामलाल ‘भैयाजी’ का खासमखास था. वह बचपन से उन के साथ साए की तरह लगा रहता था.
रामलाल को भी गांव के लोगों की यह अनदेखी सहन नहीं हो रही थी. वह मालिक को उदास देखता तो उस का खून खौलने लगता. धीरेधीरे उस के मन का गुस्सा भयानक रूप लेता जा रहा था.‘भैयाजी’ सरोज काकी के अलावा गांव के कुछ और लोगों को सबक सिखाने का मन बना चुके थे. वे जानते थे कि उन्हें कुछ ऐसा करना ही पड़ेगा कि गांव में उन की इज्जत फिर पहले जैसी हो जाए. वे इस के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.मनसुख गांव का ईमानदार और मेहनती आदमी था.
कभी उस के पिताजी ‘भैयाजी’ के घर का गोबर डाला करते थे, पर मनसुख ने जब से होश संभाला, उस के परिवार ने तरक्की करनी शुरू कर दी थी.मनसुख गांव में गल्ला खरीदता और मंडी में ले जा कर बेच देता था. उस ने इस धंधे से ही पैसे कमाए थे. गांव वाले उस की ईमानदारी से खुश रहते थे. वह गांव के लोगों की मदद दिल खोल कर करता था. इस वजह से गांव में उस की बहुत इज्जत थी.‘भैयाजी’ ने मनसुख को अपने निशाने पर लिया था. मनसुख सरंपच का सगा भाई था.
‘भैयाजी’ एकसाथ कई निशाने लगाने की योजना में थे. सरोज काकी मनसुख के धंधे में मदद करती थीं. उन्हें भी दो पैसे मिल जाते थे. उन के पास यही एकमात्र रोजगार का साधन था. ज्यादा उम्र न तो मनसुख की हुई थी और न ही सरोज काकी की. इस वजह से ‘भैयाजी’ को उन के बारे में अफवाह फैलाने में कोई परेशानी भी नहीं हुई.‘भैयाजी’ तो गांव में कहीं आतेजाते नहीं थे, सो रामलाल ने गलीगली खबर फैलाने की जिम्मेदारी ले ली और इस अफवाह को पंख लग गए.
सरोज काकी ने मनसुख के यहां आनाजाना बंद कर दिया. कुछ ही दिन में मनसुख का धंधा चौपट हो गया. मनसुख इसे सहन नहीं कर पाया. गांव के लोगों को भरी दोपहरी में उस की लाश एक पेड़ से लटकी मिली.देखते ही देखते मनसुख के खुदकुशी कर लेने की खबर पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले पुलिस के चक्कर में पड़ना नहीं चाहते थे, बल्कि यों कहें कि रामलाल ने खुदकुशी के मामले में पुलिस किस तरह से लोगों को परेशान कर सकती है की ऐसी भयानक कहानी गांव वालों को सुनाई थी कि गांव वाले इस मामले को गांव में ही निबटा लेने में भलाई समझने लगे थे.
सालों बाद गांव के लोगों को ‘भैयाजी’ की याद आई. ‘भैयाजी’ का मन फूला नहीं समा रहा था, पर उन्होंने गांव वालों की इस गुजारिश को साफ शब्दों में ठुकरा दिया. गांव वाले निराश हो कर लौटने भी लगे, पर रामलाल ने हालात को संभाला और अपनी सेवाओं की दुहाई दे कर ‘भैयाजी’ से पंचायत करने की इजाजत ले ली.रामलाल को लगा कि आज उस ने मालिक का कर्ज अदा कर दिया और ‘भैयाजी’ को लगा कि रामलाल को खिलानापिलाना काम आ गया.पंचायत ‘भैयाजी’ के दालान में ही लगी. गांव के सारे लोग जमा हुए. सरोज काकी को बुलाया गया और सरपंच को भी.
सरपंच ने सारा कुसूर सरोज काकी पर मढ़ दिया. हालांकि उसे ऐसा करने की सलाह खुद ‘भैयाजी’ ने ही दी थी. सरपंच उन की गिरफ्त में आ चुका था.सरोज काकी के साथ कोई नहीं था. वे औरत थीं, इस वजह से वे बहुत खुल कर अपनी बात रख भी नहीं पाईं. सारा माहौल ऐसा बन गया था कि लोग उन के खिलाफ नजर आने लगे.‘भैयाजी’ की चाल कामयाब हो गई थी.
अब उन्हें अपना फैसला देने में कोई परेशानी नहीं थी. वे जानते थे कि लोग सरोज काकी के खिलाफ फैसला सुनना चाहते हैं और अगर वे ऐसा ही फैसला देंगे, तो गांव वालों की नजरों में उन की इज्जत बढ़ जाएगी.‘भैयाजी’ ने बहुत सोचनेविचारने के बाद कहा, ‘पंचायत सावित्री की मां को मनसुख की खुदकुशी के लिए कुसूरवार मानती है और फैसला देती है कि सावित्री की मां यानी सरोज काकी का दानापानी बंद किया जाता है और उसे गांव में घुसने की भी इजाजत नहीं होगी.’’पंचायत ऐसे ही फैसले का इंतजार कर रही थी.
इस वजह से किसी को भी कोई हैरत नहीं हुई सिवा रामलाल के, जो मुखिया का सब से खास राजदार था.‘भैयाजी’ को लग रहा था कि उन्होंने अपनी हारी हुई बाजी अपने हाथ में कर ली थी. सरपंच तो उन की चपेट में आ ही चुका था, गांव वाले भी उन के फैसले से खुश थे. सो, देरसवेर वे भी उन को सलाम करने लगेंगे.पर ऐसा हुआ नहीं. सरोज काकी को पंचायत के फैसले के हिसाब से गांव छोड़ना था.
वे इस की तैयारी भी कर रही थीं कि तभी सावित्री अपने दलबल के साथ वहां आ पहुंची. सावित्री को एकाएक अपने सामने देख कर सरोज काकी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. सावित्री को सारे मामले की जानकारी तो पहले ही हो चुकी थी. इस वजह से तो वह गांव में आई थी.सावित्री अब बड़ी सरकारी अफसर बन चुकी थी. पुलिस उस के साथ रहती थी.
‘भैयाजी’ पुलिस के नाम से ही घबरा गए थे.सावित्री ने ‘भैयाजी’ की उम्र का लिहाज किया और बोली, ‘‘देखो अंकल, मैं चाहती तो अब तक आप सलाखों के पीछे होते, पर मैं आप की उम्र का लिहाज कर रही हूं. ‘‘मां को तो मैं अपने साथ ले जा रही हूं, पर आप को चेतावनी भी देती जा रही हूं कि भविष्य में ऐसा कुछ भी मत दोहराना, वरना…’’‘भैयाजी’ की बाजी पलट गई. वे मुंह लटकाए खड़े रह गए.