एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के लिए शहीद होने वाले कुल जवानों में से तकरीबन 78,000 (एकलौते बेटे) जवान कुंआरे या शादी के तुरंत बाद शहीद हो गए यानी कोई बच्चा होने से पहले ही धरती से विदा हो गए. एक नजरिए से देखा जाए, तो 78,000 परिवार ही खत्म हो गए. कोई सैनिक शहीद होता है, तो दिल्ली में किसी तरह की चर्चा तक नहीं होती. जिस गांव से वह ताल्लुक रखता है, उस गांव व आसपास के गांवों के लोग उस शहीद के अंतिम संस्कार में जुटते हैं और सेना के अफसरों और एसडीएम या डीएम को सलामी देते देखते हैं, तो जोश से लबरेज नजर आते हैं.

मीडिया वाले परिवार के लोगों की बाइट दिखा कर जोश को दोगुना कर देते हैं. सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि उस ने इतनी कम उम्र में देश के लिए कुरबानी दी है या उस के बाप ने कहा कि मुझे गर्व है कि मेरे बेटे ने देश के लिए शहादत दी है, हालांकि उस बाप के असल दर्द को कौन जान सकता है. बाद में शहीदों के परिवारों की देखरेख हम किस तरह से करते हैं, वह जगजाहिर है. शहीद की मां गांव के गवाड़नुक्कड़ पर बैठ कर रोज आनेजाने वाले को बेटे की कहानियां सुनाते हुए आंसू पोंछती रहती है, तो पिता खेतों में दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में इसलिए रातदिन लगा रहता है कि दूसरा बेटा शहीद भाई की फाइलें ले कर अफसरों के दफ्तरों के चक्कर आराम से काट सके. नेताओं और सिविल सोसाइटी के लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर शहीदों की शहादत को ले कर फेंके गए जोशीले शब्दों को देख कर लगता है कि उन में से न जाने कितने दोगले लोग हैं कि एक ट्वीट या पोस्ट के बाद वे जिंदगी का मजा लेने लग जाते हैं. क्या फर्क पड़ता है उन्हें.

अब तो बाकायदा चुनाव भी शहीदों के नाम पर लड़े जा रहे हैं, जबकि शहीदों की शहादत को ले कर ही सवाल खड़े हो रहे हैं. अब कश्मीर कोई राष्ट्रभक्ति के ज्वार का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय शर्म का मसला है कि आजादी के इतने सालों बाद भी रोज किसानकमेरों के बच्चों की लाशें तिरंगे में लिपट कर गांवों में पहुंच रही हैं, मगर सत्ता के लिए कश्मीर राष्ट्रवाद का मुद्दा है और हर सरकार कश्मीर को आगे कर के देशभर में गद्दरों को ढूंढ़ती रहती है. नक्सलवाद शुद्ध रूप से भुखमरी और बेकारी का मसला है, मगर सरकारें समाधान ढूंढ़ने के बजाय आदिवासियों को बल प्रयोग द्वारा जल, जंगल, जमीन से खदेड़ कर उन में इजाफा करती जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ अर्धसैनिक बलों की टुकडि़यों में इजाफा करती जाती है. जब हार्डकोर अपराधी, नेता व उद्योगपतियों के नैक्सस के खिलाफ गरीब लोग जंग हार जाते हैं, तो वे नक्सलवाद की राह पकड़ लेते हैं.

आदिवासियों की मौतों पर बिग ब्रेकिंग खबरें जैसे ‘मुठभेड़ में इतने मार गिराए’ आदि चलती हैं, तो देश में मीडिया के जरीए खुशी का माहौल बन जाता है. दूसरी तरफ जवान शहीद होते हैं, तो मामला मातम में बदल दिया जाता है, जबकि दोनों तरफ मारे भारत के नागरिक ही जा रहे हैं. देश की सत्ता में एक ऐसा नैक्सस बन गया है, जो समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के बजाय यह तय करता है कि कब और किस तरह राष्ट्रवाद को हद पर पहुंचाना है या कम कर के गद्दारों की टोली ढूंढ़ने निकलना है. देश के जवानों की शहादत पर नेता उन के परिवारों से हमदर्दी जताने आते हैं. इस दौरान वे लंबेलंबे भाषण देते हैं और इन्हीं भाषणों में आश्वासन भी दिए जाते हैं, जो कभी पूरे नहीं होते. इन आश्वासनों के भरोसे ये परिवार वाले सरकारी महकमों के चक्कर लगाते रहते हैं.

कारगिल की लड़ाई में शहीद हुए सीकर, राजस्थान के गांव धनेठा के लायंस नायक राम सिंह ने देश के लिए शहादत दी थी. उस समय राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार ने इस फौजी की विधवा पत्नी को भरोसा दिया था कि उन्हें गैस एजेंसी दी जाएगी और बच्चों की पढ़ाई मुफ्त करवाई जाएगी. लेकिन 23 साल बाद भी सरकार और फौजी अफसरों की बेरुखी का शिकार हुई शहीद फौजी की विधवा पत्नी की कहीं सुनवाई नहीं हो रही. सीमा रणवां ने बताया कि जब उस के पति शहीद हुए, तो उस का एक बेटा कर्म सिंह 5 साल का था और दूसरा बेटा डेढ़ साल का कुलदीप सिंह था, जिन की मुफ्त पढ़ाई की बात सरकार ने कही थी, लेकिन उस के बच्चों को स्कूलों में मुफ्त शिक्षा नहीं मिली. आतंकी हमले में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवान विजय कुमार मौर्य के साथ ही कई रिश्ते भी शहीद हो गए,

कई सपने दम तोड़ गए. बुजुर्ग पिता ने होनहार बेटा खो दिया. पत्नी का सुहाग उजड़ गया. 3 साल की मासूम बच्ची की अभी अपने पापा से पहचान पुख्ता भी नहीं हो सकी थी कि वे दोनों हमेशा के लिए बिछुड़ गए. 2 मासूम भतीजियों की उम्मीदों की डोर भी एक झटके में टूट गई. इन सब की जिम्मेदारी आतंकी हमले में शहीद हुए विजय कुमार पर थी. शहीद विजय कुमार के घर की माली हालत ठीक नहीं है. उन्होंने बैंक से 10 लाख रुपए का कर्जा लिया था. इस से उन्होंने सीकर में जमीन खरीदी और बाकी पैसों से गांव का घर दुरुस्त कराया था. अब परिवार को चिंता है कि यह लोन कैसे चुकता होगा. पिता करतार सिंह गांव में ही बंटाई पर ली हुई जमीन पर खेती करते हैं.

3 भाइयों व एक बहन के बीच विजय कुमार सब से छोटे थे. बड़े भाई अशोक गुजरात में निजी कंपनी में काम करते हैं. बहन की शादी हो चुकी है. साल 2014 में विजय कुमार की शादी हुई. उन की 6 साल की बेटी आराध्या है. विजय कुमार के जाने से इन सभी के सपनों ने दम तोड़ दिया. विजय कुमार की पत्नी लक्ष्मी रोतेरोते सवाल करती हैं, ‘‘आज तक इतने जवान शहीद हुए, क्या हुआ? कुछ भी नहीं. नेता हो या मंत्री, कोई कुछ नहीं करता. बस चार दिन शोर होगा, उस के बाद सब शांत हो जाता है, लेकिन हम पर तो जिंदगीभर गुजरती है.’’ खैर, अगर शहीद परिवार व गांव के लोग अपने लाड़लों की मौत पर सत्ता से सवाल करने लग जाएं, जैसे अमेरिका या यूरोप के लोग करते हैं,

तो इन शहादतों में भारी कमी आ सकती है, मगर भारतीय समाज में वह मानसिक लैवल अभी तक पैदा नहीं हो पाया है. अज्ञानता का फायदा सत्ता उठाती है और मीडिया राष्ट्रवाद के पारे को ऊपरनीचे करने में मददगार है. अपने आसपास के शहीदों के परिवारों के साथ बैठ कर उन का दर्द हलका करते जाइए. निजामों का खून खौले या नहीं, मगर लगातार होती शहादतों पर आम लोगों का खून खौलना चाहिए.

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