कोरोना के बाद पहली होली ‘होली’ एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन कर हर देहाती नौजवान का दिल धड़क उठता है. उस का जीवन धिक्कार के लायक है, जिस ने होली पर गांव की लड़कियों से छेड़ाखानी न की हो. उस से भी बदतर वह है, जिस ने ससुराल की पहली होली के बारे में कुछ सुना न हो. मैं पढ़तेपढ़ते बीए तक जा पहुंचा था, लेकिन किसी पहली होली में शामिल होना नसीब नहीं हुआ था. 2 साल पहले होली पर मेरा नंबर तय था, क्योंकि मेरे एक खास दोस्त को ससुराल में पहली होली पर बुलाया गया था, फिर कोविड का साया आने लगा और लोग इधरउधर जाने से कतराने लगे. मेरे दोस्त ने भी अपनी बीवी को होली से पहले ही बुला लिया और ससुराल की होली से हम सब रह गए.

2 साल बाद इस बार उसे फिर गांव में होली खेलने बुलाया गया. मेरी भाभी ने जिद कर के मुझे ही चलने को कहा, क्योंकि मैं उन के नजदीक कुछ ज्यादा था और मेरे दोस्त हमारे इसी मजाक का मजा लेता था. होली के एक दिन पहले हम टैक्सी कर के गांव में उस के घर जा पहुंचे. लड़की वालों ने होली का बड़ा आयोजन किया था. मैं भाभी का प्यारा था और घर वालों से कई बार फेसटाइम पर बात कर चुका था. मेहमानों में सिर्फ मैं ही पढ़ालिखा था, इसलिए मुझे भरपूर इज्जत पाने की पूरी उम्मीद थी. लड़की वालों ने अच्छी आवभगत की. भाभी की सहेलियों ने रात को ही आ कर हम से ठिठोली करनी चालू कर दी. मैं गदगद हो गया, क्योंकि वे इतने मेहमानों को छोड़ कर मेरे ही आसपास मंडरा रही थीं. मुझे अपने लुभावनेपन का एहसास हुआ. मैं तन कर बैठ गया. मैं अभी तक कुंआरा था.

दिन ढल गया था. कुछ के मातापिता चाहते थे कि मेरी शादी उन की बेटी से हो जाए, इसलिए हम से कमरे के अंदर बैठने का अनुरोध किया गया. सभी लोग पलंगों और फर्श पर बिछे गद्दों को टटोलटटोल कर बैठ रहे थे. सभी चारपाइयों पर सुंदरसुंदर चादरें बिछी थीं. कोने वाला गद्दा खाली था. मैं ने सोचा कि इस से लड़कियों के नजारे अच्छी तरह देखे जा सकेंगे. साथ ही, यहां से मेरा रंगरूप भी बाहर से देखा जा सकता है, इसलिए मैं अकड़ कर बैठा, तभी धस्स… वह गद्दा था ही नहीं. वहां तो चारों ओर तकिए लगा कर चादर बिछा दी गई थी. मैं धंस गया. नीचे पापड़ थे, जो चरचर कर टूटने लगे. कुछ पर रंग लगा था. उस पर केवल चादर को अटका दिया गया था. मैं सीधे नीचे गिर गया.

पैर ऊपर और सिर नीचे. किसी ने मुझे उठाया. उस समय तो मैं गुस्से में तमतमाया, लेकिन जब देखा कि सब लोग ठहाके लगा कर हंस रहे हैं, तो मैं झेंप कर रह गया. सब से आगे एक बड़ी चौड़ी छातियों वाली शोख लड़की थी. लोग उसे पूर्णिमा सोनी कह रहे थे. पूर्णिमा ने तो मानोे मेरा मजाक उड़ाने की जिम्मेदारी ले ली. मैं ने उठने की कोशिश की तो उस ने हाथ बढ़ा दिया. मैं हाथ पकड़ कर उठ ही रहा था कि बीच में उस ने हाथ खींच लिया. मैं फिर जा गिरा पापड़ों पर. पर दूसरी बार उस ने जो खींचा तो ठीक उस की छातियों से जा टकराया. वह सुख उस दर्द से कम था, जो पापड़ों पर गिरने से मिला था. मैं अपनेआप पर झल्ला रहा था कि और लोगों की तरह मैं भी गद्दों को अच्छी तरह टटोल कर क्यों नहीं बैठा. तब तक लड़कियां कमरे में छेड़खानी करने चली आईं, जिस से इस बार पूर्णिमा ने अपने को लगभग जमीन पर लेट कर उठाने का अंदाज अपनाया था. दूसरी ने ठहाका लगाया, ‘‘पूर्णिमा, मार ले अपनी… देख तो मर्द भी है या नहीं.’’ मैं बुरी तरह शरमा भी गया और शर्मिंदा भी हो गया.

खाना खाने का वक्त हो गया था. खाने का इंतजाम लड़की के चाचाजी ने किया था, जिन का घर बगल में ही था. हमें खाने के लिए वहीं बुलाया गया. सभी ने अपनेअपने चेहरे को एक बार धोया. कपड़े बदले. शीशे में निहारा. फिर खाने चल दिए. गांव में बिजली तो थी, पर गली में नहीं. थोड़ा अंधेरा हो गया था. सब लोग संभलसंभल कर चल रहे थे. आखिर वे गांव वाले जो ठहरे. मैं शहर में कालेज का विद्यार्थी होने के नाते गरदन ऊंची कर के चलूं, यह लाजिमी था. मैं सब से आगे हो गया. घर के दरवाजे पर साफसाफ दिखाई नहीं दे रहा था, पर मैं तन कर सीधा आगे बढ़ा जा रहा था. अंदर से रोशनी सीधी मेरी आंखों पर पड़ रही थी. तभी मेरे पैर दरवाजे पर आड़ी बंधी रस्सी में उलझ गए.

मैं कटे पेड़ की तरह धड़ाम से गिर गया. मेरे कपड़े वहां जमा की गई रेत से गंदे हो गए. घुटनों में रगड़ लग गई, दर्द होने लगा. सभी लोग नहीं देख पाए थे, इसलिए मैं तुरंत उठ गया. लेकिन ओट में छिपी पूर्णिमा ने ठहाके लगाना चालू कर दिया. और तो और मेरे साथ वाले भी मुझ पर हंस रहे थे. मेरे रोने में बस थोड़ी ही कसर बाकी थी. ‘‘बस, लड़कियों को देख कर फिसल गए जानूं,’’ एक आवाज आई. मैं ने टटोल कर चश्मा उठाया और फिर घर में घुसा. तभी मेरे जेहन में यह बात आई कि क्यों न दोस्त के साथ ही रहा जाए. वह तो अब पुराना हो चुका है. हालांकि पहली बार ससुराल आया था शादी के बाद. मैं तुरंत उस के साथ चलने लगा. गांवों में घरों में जूते ले जाना नहीं होता, इसलिए उस समय मुझे भी अपने जूते बाहर ही खोलने पड़े. भोजन के समय तरहतरह के पकवान परोसे गए. खाना स्वादिष्ठ था, इसलिए सभी लोग चटकारे लेले कर देर तक खाते रहे. जब सभी लोगों के साथ खापी कर मैं बाहर निकला, तो मुझे अपने जूते नहीं मिले. मैं ने एक बार तो चुपकेचुपके इधरउधर देखा, लेकिन वे कहीं नहीं मिले. हाल ही में मैं ने उन्हें उसे 1,500 रुपए में खरीदा था. कहीं चोरी तो नहीं हो गए… यह सोच कर आखिर मुझे सब को बताना ही पड़ा.

यह सुन कर सभी लोग खिलखिला पड़े. मामला धीरेधीरे समझ में आ गया. दोस्त की साली ने गलती से उस के जूते की जगह मेरे जूते उठा लिए थे. नतीजतन, मुझे नंगे पैर ही चलना पड़ा. पैरों में कंकड़ चुभ रहे थे. बड़ी मुश्किल से मैं ठहराव वाली जगह पर पहुंचा. तभी पूर्णिमा सब की एजेंट बन कर आई और जमाई साहब से जूतों के बदले 2,000 रुपए की मांग करने लगी. जमाई के जूते तो उस के पास सलामत थे ही, इसलिए उस ने एक भी पैसा देने से इनकार कर दिया. जब उस की साली को यह पता लगा कि वे जूते उस के जीजाजी के नहीं, बल्कि मेरे थे, तो वह सीधी मेरे पास आई और 1,000 रुपए की मांग करने लगी.

मुझे गुस्सा आ गया. मैं ने उसे फटकारा, ‘‘जब मैं तुम्हारा जीजा ही नहीं हूं, तो मुझे क्यों परेशान कर रही हो? मेरे जूते तुरंत वापस करो.’’ पर इस का कोई असर पूर्णिमा पर नहीं हुआ. थोड़ी इठला कर वह बोली, ‘‘इतनी सारी लड़कियां हैं, किसी को पसंद कर के जीजा बन जाओ न. यह तो आप की हिम्मत पर है. हमें तो जूते छिपाई के पैसे चाहिए, चाहे यह जीजा दे, दूसरा नया जीजा. जनाब, नए जूते खरीद लेना, मैं तो चली.’’ आखिर में मैं ने बड़ी मिन्नत के बाद 500 रुपए दे कर अपने जूते छुड़ाए. हां, बदले में पूर्णिमा एक बड़ा लंबा किस सब के सामने दी गई. रात के 9 बजे गए थे. सभी मेहमान सोेने के लिए पलंगों पर लेट गए?थे. अब कोई चिंता की बात नहीं थी, इसलिए मैं भी लेट गया. तभी सामने चबूतरे पर कुछ औरतें जमा होने लगीं. मुझे खतरे की आशंका हुई. पर जब वे मिल कर गीत गाने लगीं, तो दिल को थोड़ी शांति मिली. मिलीजुली आवाज में गीत अच्छे लगे थे. कुछ देर बाद नाचने वाले गीत गाए जाने लगे. तब लेटे हुए लोग उठ कर धीरेधीरे बैठ गए, तो मैं भी बैठ गया.

गीतों का सार बदलने लगा. बाद में तो गीतों ही गीतों में समधियों पर गालियों की बौछारें भी शुरू कर दी गईं. इस तरह का मजाक आज भी चलता है, यह मुझे नहीं मालूम था. पता चला कि इस तरह के गीत गाने वाली लड़कियां असाइनमैंट पर आती हैं. दोस्त की ससुराल वालों ने खासतौर पर बुलाई हैं. 2 साल बाद होली मजे में मन रही थी, इसलिए कोई भी कसर नहीं छोड़ रहा था. उन गीतों में देशी मजाक भरा हुआ था. बच्चेबूढ़े सभी हंस रहे थे. गीतों में उन लोगों ने लड़की के 100 साल के दादाजी का विवाह जमाई की बूढ़ी दादी से करने का प्रस्ताव रख दिया. फिर आए हुए मेहमानों का नाम ले कर खिंचाई करने लगीं. तब हंसतेहंसते मेरा भी बुरा हाल हो गया था.

थोड़ी देर बाद जब गीत में मेरा भी नाम आया, तो मेरी हंसी बंद हो गई. जब गीत में यह कहा गया कि मेरी मां मेरे पिताजी के बस में नहीं रहतीं. वे गांव में इधरउधर ताकझांक करती रहती हैं, तो सभी लोग मेरी तरफ मुंह कर के ठहाके लगाने लगे. उस समय मेरी सूरत देखने लायक थी. मैं कहीं रो न पड़ूं, इसलिए अपना चेहरा मास्क से ढक कर लेट गया. जब सब की भद्द करने के बाद गीत गाने वालियां चली गईं, तभी हम सभी को चैन आया और हम सो गए. सुबह जब हम लोग जगे, तब खातिरदारी के लिए मेजबान तैयार थे. नाश्ते में देशी घी में बना गरमागरम हलवा खा कर मन खुश हो गया. लड़कियों की मीठी छेड़खानियों से तो दिल बागबाग हो ही रहा था. फिर हमें कहा गया कि खेत पर ट्यूबवैल में नहाना बहुत अच्छा लगेगा. मेरे लिए यह नया मौका था. वहां युवतियां भी थीं और उन से मजाक और नहाना साथसाथ होता रहा. सब ने जम कर होली मनाई. एक लड़की ने तो मुझे पस्त कर दिया. मुझे नहीं मालूम था कि गांव की लड़कियां इतनी दमदार होती हैं. वापस हम लड़की के घर पहुंचे ही थे कि ऊपर से किसी ने पानी की बालटी में लाल रंग का कीचड़ सा उड़ेल दिया, जो सारा का सारा मुझ पर ही गिरा. मुझे देख कर सभी हंसने लगे. तब मुझे गुस्सा आ गया. मैं गरज पड़ा, ‘‘तमीज नहीं है इन लोगों में. मजाक भी ढंग से होता?है.

ऐसे गंवार लोगों के यहां अब एक पल भी मैं नहीं ठहरूंगा.’’ ऐसी होली कौन खेलता है. मैं गुस्से में कमरे में जा बैठा. मेरे साथियों के समझाने व लड़की वालों की तरफ से माफी मांगने पर ही मैं रुकने पर राजी हुआ. इसी दौरान 1-2 और दूसरे मेहमानों पर भी रंग पड़ चुका था, इसलिए भी थोड़ा मेरा गुस्सा कम हुआ. अब मेरे पास न तो कोई और कपड़े थे और न दोबारा नहाने का समय ही. खाना खाने का वक्त हो गया था. तब एक लड़की आई और अपना टौप और जींस दे गई कि इसे पहन लो. खाने वाले कमरे में सभी दौड़ कर घुस रहे थे. अंदर 2 जवान लड़कियां दरवाजे की ओट में खड़ी हो कर घूंसे बरसा रही थीं. घूंसा खाने वाला आदमी मर्दानगी दिखाने के चक्कर में अपनी पीठ सहलाता भी नहीं था.

मेरी घिग्घी बंध गई. जाता तो घूंसे खाने पड़ते और नहीं जाता तो खिल्ली उड़ने का डर था. आखिर हिम्मत कर के मैं घुसने के लिए तैयार हो गया. मैं ने सोचा, एक घूंसा ही तो खाना पड़ेगा. मैं जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ, वैसे ही एक जवान लड़की ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए घूंसे से मेरे कंधे पर हमला किया. मैं तिलमिला गया. मुझे चक्कर आ गया. मैं गिर गया. किसी ने मुझे पकड़ कर उठाया व पानी पिलाया. काफी देर तक मेरा कंधा दुखता रहा, पर स्वादिष्ठ खाना खाने के बाद मैं वह दर्द भूल गया. चलने का समय आ गया था. गांवों के रिवाज के अनुसार चलते समय सभी मेहमानों को एकएक कर के पाटे पर बैठा कर उन को गुलाल लगाने और एक गिलास, कुछ उपहार भेंट के तौर पर देने की तैयारी की जाने लगी.

एक पान भी दिया गया, जिस से खुशबू आ रही थी. मैं ने उसे मुंह में डाला तो चबाते ही मुंह धूल से भर गया. मैं असमंजस में पड़ गया. उसे थूकूं तो कहां? पूरा चबूतरा खचाखच भरा था. ‘‘मेहमानजी, आप किस कालेज में पढ़ते हैं?’’ एक मेजबान ने दबी हंसी में पूछा. मुझ से कुछ बोलते न बना. अगर मुंह खोलता तो मिट्टी गले में चली जाती. ‘‘अरे, थोड़ी देर पहले तो यह भलाचंगा था. अचानक यह गूंगा कैसे हो गया?’’ पास ही खड़ी एक लड़की ने अपने बगल में खड़ी सहेली से शरारती अंदाज में पूछा. मैं भकुआ कर असहाय सा देखने लगा. फिर उन्होंने मुझे माला पहनाई. मुझे लग रहा था, जैसे जूते मार कर वे विदा कर रहे हों. मैं उठ कर बाहर आया व धूल को थूक दिया. वहीं पर एक लड़की पानी लिए खड़ी थी. अच्छी तरह कुल्ला करने के बाद मैं वापस आया, तो मुझे दूसरा पान दिया गया.

मैं पागल की तरह एक बार पान को देखता, फिर लोगों को. आखिर मैं ने साहस कर के पान को मुंह में डाल ही लिया. उस में धूल नहीं थी. फिर लड़की की विदाई की जाने लगी. वह जोरजोर से रो रही थी और धीरेधीरे कदम बढ़ा रही थी. जमाई के साथ गए सभी लोग भी लौटने की तैयारी कर रहे थे. मुझे तो इतना कष्ट झेलने के बाद भी वहां से लौटने का मन नहीं कर रहा था. आज भी गांव की होली का नाम आते ही मेरा मन मचल उठता है. सोचता हूं, फिर किसी की पहली होली में जाने का मौका मुझे मिलता तो कितना अच्छा होता.

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