यह माना जाता था कि अगर गांव कसबे की लड़कियां पढ़लिख जाएंगी, तो वे रीतिरिवाजों की जकड़न से छुटकारा पा जाएंगी. लेकिन सच तो यह है कि पढ़नेलिखने और राजनीतिक रूप से मजबूत होने के बाद भी गांवकसबे की लड़कियां रिवाजों में जकड़ी हुई हैं. वे अभी भी धर्म की जकड़न में हैं. फैशन और संजनेसंवरने व फैस्टिवल के नाम पर रिवाजों में फंसी हुई हैं.

किसी भी लड़की या लड़के के लिए शादी एक बहुत बड़ा फैसला होता है. भारत में शादी किसी उत्सव से कम नहीं होती है, पर उस में भी रीतिरिवाज भरे पड़े हैं, जिन की वजह से शादी के खर्चे बढ़ रहे हैं.

धार्मिक रीतिरिवाजों के चलते लड़कियों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है. इन में से एक बात स्कूली लड़कियों के साथ भी देखी जा रही है. धार्मिक वजह से वे माहवारी के दिनों में स्कूलकालेज जाने से बचती हैं. घरों में भी अछूत की तरह रहती हैं. बहुत सी तो नहाती भी नहीं हैं. इसी गंदगी के चलते उन की तबीयत खराब होती है. शर्म के चलते वे किसी को सैनेटरी पैड लाने के लिए नहीं कह पाती हैं, जिस से कई तरह की बीमारियों की शिकार हो जाती हैं.

बहुत सी लड़कियां अभी भी शुभअशुभ को मानती हैं. बिल्ली रास्ता काट जाए, कोई छींक दे, तो अच्छा काम करने का परहेज किया जाता है. रस्मों और रीतिरिवाजों के नाम पर करवाचौथ, छठ पूजा और ऐसे तमाम व्रत रखने वालियों में गांवकसबों की पढ़ीलिखी लड़कियों की तादाद ज्यादा होती जा रही है.

शादी नहीं है कन्या का दान

शादी की रस्मों में सब से बड़ी रस्म कन्यादान की होती है. शादी के उत्सव में लोगों ने बहुत सारे बदलाव किए हैं, लेकिन अब भी कन्यादान और पैर पूजने की रस्म होती है. जब एक लड़की का कन्यादान किया जाता है तो एक लड़की को महसूस होता है कि वह कोई इनसान नहीं, बल्कि सामान है, जिसे आज दान किया जा रहा है मानो उस का कोई वजूद नहीं है, उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं है.

असलियत में मातापिता अपनी बेटी की बेहतर जिंदगी के लिए नया रिश्ता जोड़ते हैं, जो दोनों परिवारों के लिए एक खुशी का मौका होता है. ऐसे में इसे दान शब्द से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. मातापिता के लिए उन की बेटी हमेशा बेटी रहती है, उसे कभी पराया नहीं मानना चाहिए. इस के बाद भी शादी की सब से प्रमुख रस्म कन्यादान ही होती है.

भले ही आज गांवकसबे के लैवल पर भी लड़कियां नौकरी करने लगी हैं. इस के बाद भी यह माना जाता है कि शादी के पहले उस की जिम्मेदारी पिता की होती है. शादी के बाद पति उस की जिम्मेदारी उठाता है. लड़की की शादी हो गई है, इस बात का पता लोगों को चल सके, इसलिए लड़की सुहाग की निशानियां पहनती हैं. इस में मांग भरना, चूड़ी, पायल, बिछुए, मंगलसूत्र पहनना शामिल होता है.

शहरों में इन का चलन भले ही थोड़ा कम हुआ है, पर गांवकसबों में लड़की इन्हें न पहने तो उसे ताने सुनने को मिलते हैं. कई लड़कियां सामाजिक दबाव के चलते इन्हें पहनती हैं. पढ़ीलिखी लड़कियां भी दहेज का विरोध नहीं कर पाती हैं.

लड़की पक्ष वाले छोटे क्यों

गांवकसबों में शादी के मामले में लड़की वालों को छोटा ही माना जाता है. यही वजह है कि शादी में दूल्हे और बरातियों के पैर धोने की रस्म अभी भी दिखाई देती है. इस रस्म की वजह से लड़की पक्ष को छोटा माना जाता है.

यह एक कुरीति है, पर आज भी इसे सम्मान से जोड़ा जाता है. शादी में लड़की पक्ष को छोटा समझा जाता है, जो कि गलत है.

शादी दोनों पक्षों के बीच बराबरी का संबंध होता है. लिहाजा, किसी भी पक्ष को छोटा या बड़ा मानना गलत है. इस कुरीति के चलते ही लड़की को हमेशा असमान भाव से देखा जाता है. इस असमानता को दूर करने के बजाय इस को बढ़ावा दिया जा रहा है.

आज के समय में नाम बदलना आसान काम नहीं रह गया है. नाम के आगे या पीछे कोई सरनेम जोड़ने से तमाम तरह की परेशानियां होने लगती हैं. आधारकार्ड से ले कर बैंक खाता, पासपोर्ट और दूसरी तमाम लिखापढ़ी वाली जगहों पर दिक्कत होती है.

इस के चलते लड़कियां शादी के बाद अपना सरनेम कम बदलती हैं. इस के बाद भी सरनेम बदलने की प्रथा कम नहीं हो रही है.

अब भी कई बार लड़कियां अपने नाम के साथ पति का नाम या सरनेम जोड़ लेती हैं. लिखापढ़ी की दिक्कतों से बचने के लिए अब लड़कियां सोशल मीडिया में अपने नाम बदल लेती हैं. गांवकसबे की लड़कियां भी अब शादी के बाद सोशल मीडिया पर सरनेम बदलने लगी हैं. यह बात लड़कियों की सोच को दिखाती है.

हर धर्म में हावी है रस्म

गांवकसबे में हर धर्म की लड़कियां धर्म की जकड़न में रहती हैं. मुसलिम धर्म में हलाला एक रस्म है, जो एक जकड़न ही है. यह लड़की को शारीरिक और मानसिक रूप से तोड़ कर रख देती है. एक बार पति द्वारा तीन तलाक बोल देने के बाद लड़की को दोबारा शादी करने से पहले किसी दूसरे मर्द के साथ अपना रिश्ता जोड़ना पड़ता है. इस को हलाला कहा जाता है. यह सीधेतौर पर सताने के अलावा कुछ नहीं है. पढ़ीलिखी लड़कियां भी इस का विरोध नहीं करती हैं. ऐसे मामले बहुत सारे हैं.

अभी हाल में ही हिजाब को ले कर जो विवाद हुआ, उस को भी देखें तो स्कूलों में लड़कियों को इस तरह से मजबूर किया जा रहा है कि वे हिजाब पहन कर आएं.

हिजाब भले ही एक धर्म का मसला हो, पर इस के प्रभाव में तमाम दूसरे धर्म की लड़कियां भी आ जाती हैं. उन के धर्म वाले भी दबाव बनाते हैं कि वे भी धर्म की बनाई रस्मों और रीतिरिवाजों का पालन करें. सिंदूर लगाना, चूड़ी पहनना, बिछिया पहनना आमतौर पर लड़कियों ने कम कर दिया था. कालेज और औफिस में इन का कम इस्तेमाल होते देखा जा रहा था. हिजाब विवाद के बाद अब ये चीजें बढ़ेंगी.

हर धर्म के लोग यह चाहते हैं कि पढ़ीलिखी लड़कियां भी इस का विरोध न करें. इस का पालन करें, ताकि धर्म का प्रचारप्रसार होता रहे. दूसरे लोगों को लगे कि जब पढ़ीलिखी लड़कियां धर्म का पालन कर सकती हैं, तो सभी को करना चाहिए. हमारे समाज में यह माना जाता है कि जो काम पढ़ेलिखे लोग कर रहे हैं, वह गलत नहीं होता है.

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