आज मैं ने अपने दोनों बच्चों से एक सवाल पूछा कि नीरज चोपड़ा कौन है, तो उन्होंने तपाक से बता दिया कि वही जैवलिन एथलीट, जिस ने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीता है. मेरे ही बच्चे क्यों, आज हर कोई जानता है कि भालाफेंक नीरज चोपड़ा दिखने में जितना हैंडसम है, उस का कारनामा भी उतना ही शानदार है.

पर, जब मैं ने अपने दोनों बच्चों से पूछा कि हाल ही में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन के ‘दरबार हाल’ में हरेकाला हजब्बा को देश के सब से प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री अवार्ड’ से क्यों नवाजा है, तो यह सुन कर वे दोनों एकदूसरे का मुंह ताकने लगे, फिर बोले, ‘यह कैसा नाम है और ‘पद्मश्री अवार्ड’ क्या होता है’, तो मु?ो कोई हैरानी नहीं हुई.

ज्यादातर बच्चे क्या नौजवान भी इस नाम से अनजान होंगे और जिस काम के लिए हरेकाला हजब्बा को ‘पद्मश्री अवार्ड’ मिला है, इस की अहमियत उन्हें आज तो कतई नहीं सम?ा में आएगी. वजह, एक साधारण सी कदकाठी के इस आम गरीब इनसान ने उस काम के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी है, जो किसी की कामयाबी की पहली सीढ़ी होता है.

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65 साल के बुजुर्ग हरेकाला हजब्बा खुद तो संतरे बेच कर अपनी जिंदगी गुजार चुके हैं, पर नई पीढ़ी को उन्होंने जो सौगात दी है, वह किसी गोल्ड मैडल की सुनहरी चमक से कम नहीं है.

हरेकाला हजब्बा को यह सम्मान शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक काम करने के लिए दिया गया है. एक संतरे बेचने वाला शिक्षा के क्षेत्र में यह सम्मान पा रहा है, यह सुनने में क्या थोड़ा अजीब नहीं लग रहा है?

पर ऐसा हुआ है. दरअसल, कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले के न्यूपाड़ापू गांव के रहने वाले हरेकाला हजब्बा ने अपने गांव में अपनी जमापूंजी से एक स्कूल खोला है. इस के साथ ही वे हर साल अपनी बचत का पूरा हिस्सा स्कूल के विकास के लिए देते रहे हैं.

हरेकाला हजब्बा कर्नाटक के मंगलुरु शहर में एक संतरा विक्रेता हैं. अपने गांव में स्कूल न होने की वजह से वे पढ़ाई नहीं कर सके थे, लेकिन पढ़ाईलिखाई की अहमियत को बहुत ज्यादा सम?ाते थे, तभी तो उन्होंने ऐसा कारनामा किया है, जिस के बारे में लोग बातें तो बहुत करते हैं, पर अमल में लाने की बात पर कन्नी काट लेते हैं.

कभी खुद स्कूल की शक्ल न देखने वाले हरेकाला हजब्बा बताते हैं, ‘‘एक दिन एक विदेशी जोड़ा मु?ा से संतरे खरीदना चाहता था. उन्होंने कीमत भी पूछी, लेकिन मैं सम?ा नहीं सका.

‘‘यह मेरी बदकिस्मती थी कि मैं स्थानीय भाषा के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं बोल सकता हूं. वह जोड़ा चला गया. मु?ो बेहद बुरा लगा. इस के बाद मु?ो यह खयाल आया कि गांव में एक प्राइमरी स्कूल होना चाहिए, ताकि हमारे गांव के बच्चों को कभी उन हालात से गुजरना न पड़े, जिन से मैं गुजरा हूं.’’

इस के बाद हरेकाला हजब्बा ने गांव वालों को सम?ाया और उन की मदद से एक मसजिद में एक स्कूल शुरू किया. इस के अलावा वे स्कूल की साफसफाई करते थे और बच्चों के लिए पीने का पानी भी उबालते थे. साथ ही, छुट्टियों के दौरान वे गांव से 25 किलोमीटर दूर दक्षिण जिला पंचायत दफ्तर जाते थे और बारबार बड़े अफसरों से स्कूल से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं को औपचारिक रूप देने की गुजारिश करते थे.

स्कूल की जमीन लेने और शिक्षा विभाग से इस की मंजूरी लेने के लिए हरेकाला हजब्बा ने एड़ीचोटी का जोर लगाया. साल 1995 से शुरू की गई उन की इन कोशिशों को साल 1999 में तब कामयाबी मिली, जब दक्षिण कन्नड़ जिला पंचायत ने उन के स्कूल को मंजूरी दे दी.

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संतरे बेच कर अपनी गुजरबसर करने वाले की आमदनी का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, पर पढ़ाईलिखाई न मिलने से जिंदगी में कितनी बड़ी समस्याएं आ सकती हैं, यह बात नई पीढ़ी को सम?ा नहीं आ पाती है.

हरेकाला हजब्बा जैसे लोग अपने जज्बे से दुनिया को यह बता देते हैं कि तालीम की चाबी कामयाबी का ताला खोलने के लिए बहुत ज्यादा जरूरी है.

यही वजह है कि अब हरेकाला हजब्बा अपने बनाए गए स्कूल को और बड़ा बनाना चाहते हैं, जिसे करने में वे कामयाब भी रहेंगे. वे खुद तो अनपढ़ रहे हैं, पर उन के इस काम ने उन्हें ‘अक्षर संत’ की ऐसी उपाधि दिला दी है, जो हर किसी के लिए मिसाल है.

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