प्लेन से मुंबई से दिल्ली तक के सफर में थकान जैसा तो कुछ नहीं था पर मां के ‘थोड़ा आराम कर ले,’ कहने पर मैं फ्रैश हो कर मां के ही बैडरूम में आ कर लेट गई. भैयाभाभी औफिस में थे. मां घर की मेड श्यामा को किचन में कुछ निर्देश दे रही थीं. कल पिताजी की बरसी है. हर साल मैं मां की इच्छानुसार उन के पास जरूर आती हूं. मैं 5 साल की ही थी जब पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. भैया उस समय 10 साल के थे. मां टीचर थीं. अब रिटायर हो चुकी हैं. 25 सालों के अपने वैवाहिक जीवन में मैं सुरभि और सार्थक के जन्म के समय ही नहीं आ पाई हूं पर बाकी समय हर साल आती रही हूं. विपिन मेरे सकुशल पहुंचने की खबर ले चुके थे. बच्चों से भी बात हो चुकी थी.

मैं चुपचाप लेटी कल होने वाले हवन, भैयाभाभी और अपने इकलौते भतीजे यश के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मां की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘ले तनु, कुछ खा ले.’’ पीछेपीछे श्यामा मुसकराती हुई ट्रे ले कर हाजिर हुई.

मैं ने कहा, ‘‘मां, इतना सब?’’ ‘‘अरे, सफर से आई है, घर के काम निबटाने में पता नहीं कुछ खा कर चली होगी या नहीं.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘मांएं ऐसी ही होती हैं, मैं जानती हूं मां. अच्छाभला नाश्ता कर के निकली थी और प्लेन में कौफी भी पी थी.’’ मां ने एक परांठा और दही प्लेट में रख कर मुझे पकड़ा दिया, साथ में हलवा.

मायके आते ही एक मैच्योर स्त्री भी चंचल तरुणी में बदल जाती है. अत: मैं ने भी ठुनकते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं इतना नहीं खाऊंगी और हलवा तो बिलकुल भी नहीं.’’ मां ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘यह डाइटिंग मुंबई में ही करना, मेरे सामने नहीं चलेगी. खा ले मेरी बिटिया.’’

‘‘अच्छा ठीक है, अपना नाश्ता भी ले आओ आप.’’

‘‘हां, मैं लाती हूं,’’ कह कर श्यामा चली गई. हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. भैयाभाभी रात तक ही आने वाले थे. मैं ने कहा, ‘‘कल के लिए कुछ सामान लाना है क्या?’’

‘‘नहीं, संडे को ही अनिल ने सारी तैयारी कर ली थी. तू थोड़ा आराम कर. मैं जरा श्यामा से कुछ काम करवा लूं.’’

दोपहर तक यश भी आ कर मुझ से लिपट गया. मेरे इस इकलौते भतीजे को मुझ से बहुत लगाव है. मेरे मायके में गिनेचुने लोग ही तो हैं. सब से मुधर स्वभाव के कारण घर में एक स्नेहपूर्ण माहौल रहता है. जब आती हूं अच्छा लगता है. 3 बजे तक का टाइम कब कट गया पता ही नहीं चला. यश कोचिंग चला गया तो मैं भी मां के पास ही लेट गई. मां दोपहर में थोड़ा सोती हैं. मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठ कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. इतने में डोरबैल बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला, श्यामा पास में ही रहती है. वह दोपहर में घर चली जाती है. शाम को फिर आ जाती है.

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पोस्टमैन था. टैलीग्राम था. मैं ने उलटापलटा. टैलीग्राम मेरे नाम था. प्रेषक के नाम पर नजर पड़ते ही मुझे हैरत का एक तेज झटका लगा. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. अनिरुद्ध. मैं टैलीग्राम ले कर सोफे पर धंस गई. हमेशा की तरह कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था अनिरुद्ध ने, ‘‘तुम इस समय यहीं होगी, जानता हूं. अगर ठीक समझो तो संपर्क करना.’’

पता नहीं कैसे मेरी आंखें मिश्रित भावों की नमी से भरती चली गई थीं. ओह अनिरुद्ध. तुम्हें आज 25 साल बाद भी याद है मेरे पिताजी की बरसी. और यह टैलीग्राम. 3 दिन बाद 164 साल पुरानी टैलीग्राम सेवा बंद होने वाली है. अनिरुद्ध के पास यही एक रास्ता था आखिरी बार मुझ तक पहुंचने का. मेरा मोबाइल नंबर उस के पास है नहीं, न मेरा मुंबई का पता है उस के पास. तब यहां उन दिनों घर में भी फोन नहीं था. बस यही आखिरी तरीका उसे सूझा होगा. उसे यह हमेशा से पता था कि पिताजी की बरसी पर मैं कहीं भी रहूं, मां और भैया के पास जरूर आऊंगी और उस की यह कोशिश मेरे दिल के कोनेकोने को उस की मीठी सी याद से भरती जा रही थी. अनिरुद्ध… मेरा पहला प्यार एक सुगंधित पुष्प की तरह ही तो था. एक पूरा कालखंड ही बीत गया अनिरुद्ध से मिले. वयसंधि पर खड़ी थी तब मैं जब पहली बार मन में प्यार की कोंपल फूटी थी. यह वही नाम था जिस की आवाज कानों में उतरने के साथ ही जेठ की दोपहर में वसंत का एहसास कराने लगती. तब लगता था यदि परम आनंद कहीं है तो बस उन पलो में सिमटा हुआ जो हमारे एकांत के हमसफर होते, पर कालेज के दिनों में ऐसे पल हम दोनों को मुश्किल से ही मिलते थे. होते भी तो संकोच, संस्कार और डर में लिपटे हुए कि कहीं कोई

देख न ले. नौकरी मिलते ही उस पर घर में विवाह का दबाव बना तो उस ने मेरे बारे में अपने परिवार को बताया. फिर वही हुआ जिस का डर था. उस के अतिपुरातनपंथी परिवार में हंगामा खड़ा हो गया और फिर प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुजुर्गों के आदेश के आगे मुंह सिला खड़ा रह गया था. प्यार क्या योजना बना कर जातिधर्म परख कर किया जाता है या किया जा सकता है? और बस हम दोनों ने ही एकदूसरे को भविष्य की शुभकामनाएं दे कर भरे मन से विदा ले ली थी. यही समझा लिया था मन को कि प्यार में पाना जरूरी भी नहीं, पृथ्वीआकाश कहां मिलते हैं भला. सच्चा प्यार तो शरीर से ऊपर मन से जुड़ता है. बस, हम जुदा भर हुए थे.

उस की विरह में मेरी आंखों से बहे अनगिनत आंसू बाबुल के घर से विदाई के आंसुओं में गिन लिए गए थे. मैं इस अध्याय को वहीं समाप्त समझ पति के घर आ गई थी. लेकिन आज उसी बंद अध्याय के पन्ने फिर से खुलने के लिए मेरे सम्मुख फड़फड़ा रहे थे. टैलीग्राम पर उस का पता लिखा हुआ था, वह यहीं दिल्ली में ही है. क्या उस से मिल लूं? देखूं तो कैसा है? उस के परिवार से भी मिल लूं. पर यह मुलाकात हमारे शांतसुखी वैवाहिक जीवन में हलचल तो नहीं मचा देगी? दिल उस से मिलने के लिए उकसा रहा था, दिमाग कह रहा था पीछे मुड़ कर देखना ठीक नहीं रहेगा. मन तो हो रहा था, देखूंमिलूं उस से, 25 साल बाद कैसा लगता होगा. पूछूं ये साल कैसे रहे, क्याक्या किया, अपने बारे में भी बताऊं. फिर अचानक पता नहीं क्या मन में आया मैं चुपचाप स्टोररूम में चली गई. वहां काफी नीचे दबा अपना एक बौक्स उठाया. मेरा यह बौक्स सालों से यहीं पड़ा है. इसे कभी किसी ने नहीं छेड़ा. मैं ने बौक्स खोला, उस में एक और डब्बा था.

सामने अनिरुद्ध के कुछ पुराने पीले पड़ चुके, भावनाओं की स्याही में लिपटे खतों का 1-1 पन्ना पुरानी यादों को आंखों के सामने एक खूबसूरत तसवीर की तरह ला रहा था. न जाने कितनी भावनाओं का लेखाजोखा इन खतों में था. मुझे अचानक महसूस हुआ आजकल के प्रेमियों के लिए तो मोबाइल ने कई विकल्प खोल दिए हैं. फेसबुक ने तो अपनों को छोड़ कर अनजान रिश्तों को जोड़ दिया है.

सारा सामान अपनी गोद में फैलाए मैं अनगिनत यादों की गिरफ्त में बैठी थी जहां कुछ भी बनावटी नहीं होता था. शब्दों का जादू और भावों का सम्मोहन लिए ये खत मन में उतर जाते थे. हर शब्द में लिखने वाले की मौजूदगी महसूस होती थी. अनिरुद्ध ने एक पेपर पर लिखा था, ‘‘खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार. जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’’

मेरे होंठों पर एक मुसकराहट आ गई. आजकल के बच्चे इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पाएंगे. वे तो अपने प्रिय को मनाने के लिए सिर्फ एक आई लव यू स्माइली का सहारा ले कर बात कर लेते हैं. अनिरुद्ध खत में न कभी अपना नाम लिखता था न मेरा, इसी वजह से मैं इन्हें संभाल कर रख सकी थी. अनिरुद्ध की दी हुई कई चीजें मेरे सामने पड़ी थीं. उस का दिया हुआ एक पैन, उस का पीला पड़ चुका एक सफेद रूमाल जो उस ने मुझे बारिश में भीगे हुए चेहरे को साफ करने के लिए दिया था. मुझे दिए गए उस के लिखे क्लास के कुछ नोट्स, कई बार तो वह ऐसे ही कोई कागज पकड़ा देता था जिस पर कोई बहुत ही सुंदर शेर लिखा होता था.

स्टोररूम के ठंडेठंडे फर्श पर बैठ कर मैं उस के खत उलटपुलट रही थी और अब यह अंतिम टैलीग्राम. बहुत सी मीठी, अच्छी, मधुर यादों से भरे रिश्ते की मिठास से भरा, मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी पर कहां रख पाऊंगी भला, किसी ने देख लिया तो क्या समझा पाऊंगी कुछ? नहीं. फिर वैसे भी मेरे वर्तमान में अतीत के इस अध्याय की न जरूरत है, न जगह. फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं ने अंतिम टैलीग्राम को आखिरी बार भरी आंखों से निहार कर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मुझे उसे कहीं रखने की जरूरत नहीं है. मेरे मन में इस टैलीग्राम में बसी भावनाओं की खुशबू जो बस गई है. अब इसी खुशबू में भीगी फिरती रहूंगी जीवन भर. वह मुझे भूला नहीं है, मेरे लिए यह एहसास कोई ग्लानि नहीं है, प्यार है, खुशी है.

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