लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

महविश एक नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी, ताकि वह सिराज को यह बता सके कि उस की और सिराज की मिलीजुली होने वाली आमदनी से उन का घर अच्छी तरह से चल जाएगा, पर नौकरी न मिल पाने की नौबत में वह परेशान रहने लगी.

आज बगल वाली छत पर काफी हलचल थी. शहर से नुसरत की बड़ी बहन नेमत जो आई थी, सारे बच्चे उन्हीं के आगेपीछे घूम रहे थे, पर महविश का मन उधर न लगता था. वह तो बस एक बोरे को हाथ में ले कर उस पर ऊन से कढ़ाई कर रही थी.

नुसरत की बहन नेमत ने छत से इधर देखा, तो देखती ही रह गईं, उन की नजर तो महविश के हाथों में फंसे जूट के बोरे पर रंगबिरंगी ऊन से बनते फूलों और गुलदस्तों से हट ही नहीं रही थीं.

किसी को अपनी तरफ घूरते देख कर महविश चौंक पड़ी.

‘‘अरे, ऐसे क्या देख रही?हैं?’’

‘‘देख रही हूं कि क्या हुनर है तुम्हारे हाथों में… किस तरह से तुम्हारी सूई इस ऊन से जूट की बोरी पर रंगबिरंगी शक्ल देती जा रही है और जिस तरह तुम इस काम में डूबी हुई नजर आती हो. लगता है कि कोई शायर अपनी गजल लिख रहा हो,’’ नेमत ने कहा.

‘‘जी शुक्रिया,’’ महविश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मगर तुम अपने इस हुनर को दुनिया के सामने क्यों नहीं लाती… और फिर इस काम से तो कमाई का जरीया भी बनेगा,’’ नेमत ने कहा.

कमाई की बात सुन कर महविश के हाथ रुक गए. माना कि उस के अब्बू के पास बहुत पैसा था, पर उसे तो अपनेआप को साबित करना था कि वह खुद के बलबूते पर ही कुछ कर सकती है. महविश जैसे जाग सी गई. उस की आंखों में एक चमक आ गई.

‘‘जी, यह तो घरों में काम आने वाली बहुत साधारण सी चीज है… इस से भला क्या कमाई हो सकती है?’’ महविश ने पूछा.

‘‘है तो साधारण, पर कसबों से निकली हुई यही चीज जब शहर के बड़े शोरूम में सज जाती है, तो इस की हजार गुना कीमत बढ़ जाती है… मुझे देखो, मेरे शौहर ने मुझे फोन पर ही तलाक दे दिया, क्योंकि वे किसी और औरत के फेर में था… मेरे 2 बच्चों की जिम्मेदारी अब मुझ पर थी…

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‘‘मेरे ससुर मुझ पर एक बड़ी उम्र वाले बूढ़े से दोबारा निकाह करने के लिए जोर डालने लगे और तलाकशुदा होने के नाते घर के लोग ही मुझ पर फब्तियां कसने लगे… पर मैं ने न केवल उस बेमेल निकाह से इनकार किया, बल्कि मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हुई…

‘‘तुम्हारी ही तरह मुझे भी चिकनकारी का काम आता है, सो मैं ने थोक में कपड़ाफरोशों से कपड़ा लाना शुरू किया और उस पर चिकन की कढ़ाई कर के उसे सस्ते दामों में बाजार में दुकानदारों को दिया…

‘‘धीरेधीरे मेरा काम चल निकला  और आज मेरे पास इतना काम है कि  मेरा एक छोटा सा कारखाना है और  8-10 लड़कियों को भी मैं ने रोजगार दिया है, जिन्हें मैं हर महीने पगार देती हूं… मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं पड़ी,’’ नेमत मुसकराते हुए कह रही थीं.

महविश को लगा कि वह भी कुछ इसी तरह से अपना काम कर सकती?है.

‘‘और हां, अगर चाहो तो मैं तुम्हारे इस काम का नमूना अपने साथ शहर ले जा कर वहां के दुकानदारों को दिखाती हूं. अगर उन्हें अच्छा लगेगा तो मैं फोन से तुम्हें बता दूंगी और फिर आगे का प्रोग्राम सैट कर लेंगे.’’

भला महविश को इस में क्या परेशानी होती… उस ने अम्मी की नजर बचाते हुए 5-7 नमूने नेमत को पकड़ा दिए.

तकरीबन 10 दिन बाद नेमत का फोन आया, जिस में उस ने बताया कि शहर में उस का काम पसंद आया है, इसलिए वह कम से कम 50 पीस बना कर भेजे, जिस के बदले में महविश को एडवांस में 5,000 रुपए का चैक भी भेज दिया गया था.

महविश बहुत खुश थी. उसे अपने हुनर की बदौलत आज कमाईं का जरीया मिल गया था. एक बार महविश का चैक क्या आया, फिर तो उस के पास हर महीने ही काम के और्डर आने लगे और पैसा भी आने लगा.

बस, अब महविश को कुछ नहीं चाहिए था. वह सामने के रास्ते से सिराज से मिलने गई और उस के अम्मीअब्बू के सामने ही उस से बोली, ‘‘जिस तरह की जिंदगी तुम जी रहे हो… मैं भी वैसे ही जी लूंगी सिराज… तुम अगर एक रोटी दोगे तो मैं आधी खा कर ही खुश रह लूंगी और अब तो मैं थोड़े पैसे भी कमाने लगी हूं…

‘‘हम दोनों मिल कर काम करेंगे तो अपना गुजारा हो जाएगा और इन बच्चियों की शादी भी… और फिर जहां रिश्तों में प्यार होता है, वहां छोटीमोटी दिक्कतें हल हो ही जाती?हैं.’’

महविश जिस मुहब्बत भरे अंदाज में सिराज को निकाह के लिए राजी कर रही थी, उसे देख कर तो सिराज के अम्मीअब्बू बहुत खुश हुए.

‘‘पर बेटी, भला तुम्हारे घर वाले हमारे सिराज के साथ तुम्हारा निकाह क्यों करेंगे, जबकि वे हमारी हैसियत जानते हैं,’’ सिराज के अब्बू ने कहा.

‘‘उन को मनाना मेरा काम है… बस मुश्किल तो सिराज की है,’’ महविश ने सिराज की तरफ देखते हुए कहा. सिराज चुप था, पर उस की खामोशी अपना इकरारनामा कर चुकी थी.

जब महविश के निकाह की बात उस के घर पर चली, तो महविश ने दबी जबान से ये कह दिया कि वे अपनी आगे की जिंदगी सिराज के ही साथ गुजारना चाहती है.

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‘‘पर बेटी, वे लोग हम से कम पैसे वाले हैं. उन के घर में तू कैसे निबाह पाएगी?’’ अम्मी ने कहा.

‘‘मैं ने अपनेआप को हर हालात में रहने के लिए ढाल लिया है अम्मी,’’ मुसकराते हुए महविश ने कहा.

‘‘अम्मी को समझ आ गया था महविश का कमरा बदलना, सादे कपड़े पहनना और उन्हें अपने हाथ से धोना…’’ अम्मी की आंखों में नमी तैर आई थी.

दोनों परिवारों ने आपसी रजामंदी से सिराज और महविश का निकाह करवा दिया था.

महविश के काम को शहरों में बहुत पहचान मिली. हस्तकला उद्योग के नाम पर काम को पहचान भी मिली. महविश को तमाम और्डर मिलते, जिन्हें वह समय पर पूरा कर के भिजवाती.

आज सिराज और महविश के निकाह को 10 साल हो गए हैं. सिराज की बहनों का भी निकाह हो चुका है और वे अपनी ससुराल में खुश हैं.

महविश के सच्चे प्यार ने सारी मुश्किलों को हल कर दिया था.

सिराज और महविश के पास अपनी एक फैक्टरी है, जिस का नाम है ‘मह राज हस्तकला उद्योग’. आखिर सिराज और महविश मिल जो गए थे.

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