‘हत्यारे को फांसी दो... फांसी दो... फांसी दो...’ भीड़ में लगातार नारे बुलंद हो रहे थे. ऐसा लग रहा था कि लोगों में गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था?

थाने के सामने प्रदर्शन होते देख वहां पत्रकारों की फौज जमा हो गई थी, जिस में प्रिंट मीडिया के कई पत्रकार धड़ाधड़ प्रदर्शनकारियों के फोटो खींच रहे थे, तो इलैक्ट्रौनिक मीडिया के बहुत से पत्रकार विजुअल ले कर माइक आईडी लगा कर प्रदर्शनकारियों के बयान ले रहे थे. कुछ पत्रकारों का कैमरा उस की ओर भी घूमता दिखाई दे रहा था.

जान मोहम्मद हंगामा देख कर थाने के गेट के सामने ही खड़ा हो कर प्रदर्शनकारियों को हैरानी से देख रहा था. प्रदर्शनकारियों के हंगामे की खबर सुन कर किसी भी अनहोनी के डर को ले कर एसपी साहब के आदेश पर सिक्योरिटी के नजरिए से कई थानों की पुलिस उस के थाने पर भेज दी गई थी.

‘‘जान मोहम्मद, तुम्हारी एक नादानी की वजह से आज यह हंगामा हो रहा है. तुम्हें कितनी बार सम?ाया है कि तुम एक तो मुसलिम हो और साथ ही, तुम ज्यादा ईमानदार और इमोशनल हो कर ड्यूटी मत किया करो, लेकिन तुम मानते ही नहीं. देख लिया इस का नतीजा.

अब भुगतो,’’ जान मोहम्मद का दारोगा साथी फिरोज उस से नाराजगी जाहिर करते हुए बोला.

फिरोज की बात को सुन कर जान मोहम्मद खामोश ही रहा. वह अच्छी तरह जानता था कि यह हंगामा उसी के लिए हो रहा है. सुबह से ही इस छोटे से कसबे में कर्फ्यू लगने जैसा माहौल हो गया था. एक पनवाड़ी की दुकान भी नहीं खुली हुई थी कि कोई पान भी खरीद कर खा ले. पूरे कसबे में घूमघूम कर इन प्रदर्शनकारियों ने ही दुकानदारों से बोल कर दुकानें बंद करा दी थीं.

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