इंदिरा नगर की झुग्गीझोंपड़ी कालोनी वाले बस स्टौप के बिलकुल पीछे बने 2 कमरों में एक छोटी सी पुलिस चौकी बनी हुई थी. कालोनी की तंग और भीड़भाड़ वाली सड़क पर बने मकानों के निचले हिस्सों में दुकानें थीं और ऊपर वाले कमरों में लोग रहा करते थे.
बारिश होने के चलते गरमी की उस दोपहर में कई दिन बाद राहत महसूस की जा रही थी. बरसात के बाद बंद कमरों में उमस बढ़ गई थी. उस से बचने के लिए कालोनी के ज्यादातर लोग घर के बाहर चारपाइयां डाले
बैठे थे.
उन्हीं की तरह 3 पुलिस के जवान भी पुलिस चौकी के बाहर बेंत की बुनी कुरसियों पर बैठे ठंडे मौसम का मजा लेते हुए आपस में बातचीत कर रहे थे.
तभी सामने से आ कर काली पैंट और पीली धारीदार कमीज पहने एक दुबलेपतले लड़के ने धीरे से उन से कुछ कहा, जिसे सुनते ही वे तीनों कमर
की पेटी कसते हुए चौकी से तकरीबन 60-70 मीटर दूर 8 नंबर की संकरी सी गली की तरफ मुड़ गए.
उन के साथ ही आसपास के लोग उस गली की तरफ लपके. पुलिस को देखते ही लोगों के मन में किसी अनहोनी घटना का खयाल उमड़ने लगा. पुलिस यानी कोई कांड. लेकिन क्या, कहां और कैसे? वगैरह सवालों का जवाब उन्हें नहीं मिल पाया.
इसी दौरान उस झुग्गीझोंपड़ी कालोनी के बिलकुल साथ बसी मंझोले तबके के लोगों की कालोनी की तरफ से 2 नौजवान आए. वे डीलडौल और कीमती कपड़ों से किसी रईस परिवार के लग रहे थे. वहां की हलचल देख
कर कुछ जानने की इच्छा से वे चौकी के बाहर बैठे उस काली पैंट और