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राजबाला को उन के इस प्रकार के बर्ताव से बड़ा आश्चर्य हुआ और मन ही मन सोचने लगी, ‘सचमुच मेरे पति बड़े सुंदर हैं, चतुर और वीर हैं, पर नामालूम बीच में नंगी तलवार रख कर सोने का क्या मतलब है?’

कई दिन इसी तरह बीत गए, परंतु राजबाला को इतना साहस नहीं हुआ कि कुछ पूछती. अंत में एक दिन दोनों में बातचीत होने लगी. राजबाला ने साहस कर के पूछा, ‘‘प्राणनाथ, मैं देखती हूं कि आप प्राय: ठंडी और गहरी सांसें लेते रहते हैं. इस से पता चलता है कि आप को कोई बड़ा कष्ट हो रहा है. मैं तो आप के चरणों की दासी हूं, मुझ से छिपाना उचित नहीं है. मैं विचार करूंगी कि किस प्रकार आप की चिंता दूर हो सकती है.’’

राजबाला की बात सुन कर उस का दिल भर आया और मुंह नीचा कर के उस ने चुप्पी साध ली.

राजबाला ने फिर कहा, ‘‘स्वामी, घबराने की कोई बात नहीं है. इस संसार में सभी पर विपत्ति आती है. चिंता व्यर्थ है. संसार में हर रोग की दवा है. आप चिंता न कीजिए, मुझ से कहिए. यथासंभव मैं आप की सहायता करूंगी. यदि मेरे मरने से भी आप को सुख मिलता है या आप का भला होता है तो मेरे प्राण आप की सेवा को हर समय तैयार हैं.’’

राजबाला का इतना कहना था कि अजीत सिंह ने राजबाला का हाथ पकड़ लिया और दुखभरे शब्दों में अपनी सब कथा कह सुनाई.

जब अजीत सिंह यह सब कह चुका तो राजबाला ने कहा, ‘‘स्वामी, आप ने बड़ा त्याग कर के मुझे मोल लिया है. मैं कभी आप की इस कृपा को नहीं भूल सकती. पर यह ऐसी जगह नहीं है, जहां 20 हजार रुपए मिल सकें. इसलिए इसे छोड़ना उचित है.

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