Writer- योगेश दीक्षित

माल रोड से कूड़ा ले जा रही मोना हाईटैक सचिवालय को देखती नदी की ओर बढ़ी जा रही थी. लालपीलेनीले बल्ब अब भी बिल्डिंग पर जगमगा रहे थे. कल 15 अगस्त था. सारी सरकारी इमारतों पर रोशनी की गई थी. तिरंगा झंडा फहराया गया था. शाम को पार्टी हुई. लोगों ने डट कर खाना खाया और दोनेपत्तल, डिस्पोजल नालियों में फेंक दिए गए. डस्टबिन खाली पड़े रहे.

ऊंची बिरादरी के लोगों की ये ओछी हरकतें मोना को परेशान कर जाती हैं. सिगरेट और सिगार के टुकड़े उसे रोज समेटने पड़ते हैं. साफसफाई की बातें ऊंचे समाज से ही उठती हैं और वे ही साफसफाई मुहिम पर चोट करते हैं.

इतना बड़ा जश्न मनाया गया, लग्जरी कारों से विधायक, नेता, कारोबारी आए. लेकिन निचले तबके को नहीं बुलाया गया, जिस की बुनियाद पर खड़ी बहुमंजिला इमारतों का उजाला सिर्फ शोरूम की जगमगाहट दिखाता है.

मोना ने अपनी झोंपड़ी से ही सचिवालय के लहराते झंडे को देखा था. बैंड की धुनें सुनी थीं. एक पल को तो वह खो ही गई थी, आजाद भारत का सीन आंखों में झूल गया था.

मोना को स्कूल की प्रार्थना याद आ गई. प्रार्थना में जब सब बच्चे एकसाथ खड़े हो कर जनगणमन गाते तो उन में कोई भेदभाव नहीं था. लेकिन आज उसे ऐसा क्यों लग रहा था कि आजादी अमीरी में चली गई है. गरीबों के घर तो वैसे ही खड़े हैं.

मोना पिछले 8 साल से नगरनिगम में काम कर रही है. 2,000 रुपए महीने की नौकरी पर उसे रखा गया था, आज वह 6,000 रुपए तक ही पहुंची है, जबकि महंगाई कई गुना बढ़ गई.

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