Writer- Kahkashan Siddiqui
उस ने मीर को कुछ पढ़ रखा था और एक शेर जो उसे याद था कहा, ‘‘ ‘मत इन नमाजियों को खानसाज-ए-दीं जानो, कि एक ईंट की खातिर ये ढोते होंगे कितने मसीत’ दादी ये धर्म के चोंचले अमेरिका में आ कर तो हम छोड़ दें.’’
सब चुप रहे. जानते थे कि यह ठीक कह रहा. इंडियनपाकिस्तानी मिल कर रहते हैं पर शादीविवाह अपने धर्म में ही पसंद करते हैं.
हां, साथसाथ स्कूल, कालेज, औफिस की दोस्ती में अकसर अलगअलग जगह के लोगों में शादियां हो जाती हैं, परंतु मंदिरमसजिद
प्रोफैसर को मुसलिम समाज और सब से बढ़ कर भाईजान का डर था. अमेरिका में भी हम ने अपना पाकिस्तानहिंदुस्तान बना लिया है, अपनी मान्यताएं अपने रीतिरिवाज... यहां वैसे तो
में मिलने वाले साथी पसंद नहीं करते. प्रोफैसर को उन का तो डर नहीं था पर भाईजान...
दादी भी जानतीं थी कि पाकिस्तानियों में तलाक अधिक होते हैं और भारत वाले साथ निभाते हैं. फिर भी हिंदू से...
एमी के घर वाले समीर के बराबर आनेजाने से धीरेधीरे उस से घुलमिल गए. बात टल सी गई पर समीर बराबर जाता रहता. दादी से हिंदी मूवीज पर बातें करता, प्रोफैसर के साथ फुटबौल मैच टीवी पर देखता, उन के लैपटौप में नएनए गेम्स लोड करता, लौन की घास काटने में प्रोफैसर की मदद करता, काटना तो मशीन से होता है पर मेहनत का काम है. नरगिस की किचन में हैल्प करता. यहां सारे काम खुद ही करने होते हैं.
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प्रोफैसर कहते, ‘‘मैं तो 3 औरतों में अकेला पड़ गया था... तुम से अच्छी कंपनी मिलती है.’’
समीर एमी से कहता, ‘‘यार एमी, मैं तो तुम्हारे घर का छोटू बन गया पर दामाद बनने के चांस नहीं दिखते. तुम मुझे डिच दे कर किसी पाकी के साथ निकल गईं तो?’’