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Writer- डा. पी. के. सिंह 

अंजलि चली गई. डा. दास बुत बने बहुत देर तक उसे जाते देखते रहे. ऐसे ही एक दिन वह चली गई थी...बिना किसी आहट, बिना दस्तक दिए.

डा. दास गरीब परिवार से थे. इसलिए एम.बी.बी.एस. पास कर के हाउसजाब खत्म होते ही उन्हें तुरंत नौकरी की जरूरत थी. वह डा. दामोदर के अधीन काम कर रहे थे और टर्म समाप्त होने को था कि उसी समय उन के सीनियर की कोशिश से उन्हें इंगलैंड जाने का मौका मिला.

पटना कालिज के टेनिस लान की बगल में दोनों घास पर बैठे थे. डा. दास ने अंजलि को बताया कि अगले हफ्ते इंगलैंड जा रहा हूं. सभी कागजी काररवाई पूरी हो चुकी है. एम.आर.सी.पी. करते ही तुरंत वापस लौटेंगे. उम्मीद है वापस लौटने पर मेडिकल कालिज में नौकरी मिल जाएगी और नौकरी मिलते ही...’’

अंजलि ने केवल इतना ही कहा था कि जल्दी लौटना. डा. दास ने वादा किया था कि जिस दिन एम.आर.सी.पी. की डिगरी मिलेगी उस के दूसरे ही दिन जहाज पकड़ कर वापस लौटेंगे.

लेकिन इंगलैंड से लौटने में डा. दास को 1 साल लग गया. वहां उन्हें नौकरी करनी पड़ी. रहने, खाने और पढ़ने के लिए पैसे की जरूरत थी. फीस के लिए भी धन जमा करना था. नौकरी करते हुए उन्होंने परीक्षा दी और 1 वर्ष बाद एम.आर.सी.पी. कर के पटना लौटे.

होस्टल में दोस्त के यहां सामान रख कर वह सीधे अंजलि के घर पहुंचे. लेकिन घर में नए लोग थे. डा. दास दुविधा में गेट के बाहर खड़े रहे. उन्हें वहां का पुराना चौकीदार दिखाई दिया तो उन्होंने उसे बुला कर पूछा, ‘‘प्रोफेसर साहब कहां हैं?’’

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