Writer- डा. पी. के. सिंह
डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.
अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’
‘‘2 बच्चे हैं.’’
‘‘लड़के या लड़कियां?’’
‘‘लड़कियां.’’
‘‘कितनी उम्र है?’’
‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’
‘‘और कैसे हो, दास?’’
‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.
अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’
आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’
अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’
बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’
‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’
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गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.
कैंटीन के पीछे थोड़ी सी जगह है जहां कुरसियां रखी रहती हैं, उस के बाद रेलिंग है. बालक की उदासी दूर हो गई. वह दौड़ कर वहां गया और रेलिंग पकड़ कर गंगा के बहाव को देखने लगा.
डा. दास और अंजलि भी कुरसी मोड़ कर उधर ही देखने लगे. गरमी नहीं आई थी, मौसम सुहावना था. मोतियों का रंग ले कर सूर्य का मंद आलोक सरिता के शांत, गंभीर जल की धारा पर फैला था. कई नावें चल रही थीं. नाविक नदी के किनारे चलते हुए रस्सी से नाव खींच रहे थे. कई लोग किनारे नहा रहे थे.
मौसम ऐसा था जो मन को सुखद बीती हुई घडि़यों की ओर ले जा रहा था. वेटर चाय का आर्डर ले गया. दोनों नदी की ओर देखते रहे.
‘‘याद है? हम लोग बोटिंग करते हुए कितनी दूर निकल जाते थे?’’
‘‘हां,’’ डा. दास तो कभी भूले ही नहीं थे. शाम साढ़े 4 बजे क्लास खत्म होने के बाद अंजलि यहां आ जाती थी और दोनों मेडिकल कालिज के घाट से बोटिंग क्लब की नाव ले कर निकल जाते थे नदी के बीच में. फिर पश्चिम की ओर नाव खेते लहरों के विरुद्ध महेंद्रू घाट, मगध महिला कालिज तक.
सूरज जब डूबने को होता और अंजलि याद दिलाती कि अंधेरा हो जाएगा, घर पहुंचना है तो नाव घुमा कर नदी की धारा के साथ छोड़ देते. नाव वेग से लहरों पर थिरकती हुई चंद मिनटों में मेडिकल कालिज के घाट तक पहुंच जाती.
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डूबती किरणों की स्वर्णिम आभा में अंजलि का पूरा बदन कंचन सा हो जाता. वह अपनी बड़ीबड़ी आंखें बंद किए नाव में लेटी रहती. लहरों के हलके छींटे बदन पर पड़ते रहते और डा. दास सबकुछ भूल कर उसी को देखते रहते. कभी नाव बहती हुई मेडिकल कालिज घाट से आगे निकल जाती तो अंजलि चौंक कर उठ बैठती, ‘अरे, मोड़ो, आगे निकल गए.’
डा. दास चौंक कर चेतन होते हुए नाव मोड़ कर मेडिकल कालिज घाट पर लाते. कभी वह आगे जा कर पटना कालिज घाट पर ही अनिच्छा से अंजलि को उतार देते. उन्हें अच्छा लगता था मेडिकल कालिज से अंजलि के साथ उस के घर के नजदीक जा कर छोड़ने में, जितनी देर तक हो सके साथ चलें, साथ रहें. वेटर 2 कप चाय दे गया. अंजलि ने बेटे को पुकार कर पूछा, ‘‘क्या खाओगे? बे्रडआमलेट खाओगे. यहां बहुत अच्छा बनता है.’’