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‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा... और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा. ‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं. इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया.

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मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या? अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

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