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शिशिर ने सोचा था राम उस की गरीबी दूर करेगा, पैसे कमा कर अमेरिका से भेजेगा, बुढ़ापे की लाठी बनेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे, उसे फोन पर बेटे से धमकियां मिलतीं, ‘पापा, इस मकान को बेच दो. मैं तुम्हें नई कालोनी में बढि़या प्लैट खरीद दूंगा. मेरा हिस्सा मुझे दे दो वरना...’ ‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं.’

मुन्ना ने समझाया, ‘यह बेवकूफी हरगिज न करना. तेरे सिर पर से छत भी जाएगी और तू सड़क पर

आ जाएगा.’ राम के इस व्यवहार से सब का मन दुखी होता, पर आखिर विकल्प क्या था?

ऐसे दुख की घड़ी में शिशिर को पदम की बड़ी याद आती. काश, वह यहां होता. कितना स्वार्थी था शिशिर जो शिखंडी बेटे के जाने के बाद उस की सुध भी न ली. आज आत्मग्लानि से वह बेटे का सामना नहीं कर पा रहा है. क्या हुआ इन 20-22 बरसों में जानने की उत्कंठा तो थी परंतु जबान जैसे तालू से चिपक गई थी उस की. आज बेटा सामने है तो खुशी तो है पर कहेपूछे किस मुंह से?

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जब से पदम ने घर में कदम रखा है, मुन्ना और रेवा बच्चों की तरह खुश हैं जैसे किसी खोए खिलौने को पा लिया है, पर शिशिर अपनी सोच और व्यवहार से नजरें चुरा रहा है. आज सब ने सुबहसुबह दूधजलेबी खाई थी. नाश्ते के बीच पदम ने पूछा, ‘‘मां, राम भैया कहां हैं?’’

‘‘अमेरिका में,’’ मां ने जवाब दिया था. ‘‘वहां क्या करते हैं?’’

‘‘पता नहीं, बेटा. फोन आता रहता है. आज इतवार है, देखना फोन जरूर आएगा.’’ ‘‘चलो, यह भी अच्छा हुआ जो पढ़लिख कर वे नौकरी कर रहे हैं,’’ पदम ने ठंडी प्रतिक्रिया दी.

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