सुजीत सिन्हा

पूरे देश में अब अनलौक की शुरुआत हो चुकी थी. औफिस, बाजार वगैरह खुल गए थे. लौकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर काम से लोगों की हुई छंटनी का असर हर तरफ दिख रहा था.

लौकडाउन के समय भारी तादाद में मजदूर अपनेअपने गांव लौट गए थे. गांवों के हालात कोई अच्छे नहीं थे. वहां का समाज अपने लोगों को काम और भोजन मुहैया करा पाने में नाकाम साबित हुआ था. लिहाजा, मजदूर फिर से वापस शहरों की तरफ रुख कर रहे थे. उसी शहर की तरफ जिस ने मुसीबत में सब से पहले उन का साथ छोड़ा था.

दूसरे मजदूरों की तरह अब्दुल भी लौकडाउन में परिवार समेत अपने गांव लौट आया था. उस ने तय कर लिया था कि अब वह नोएडा कभी वापस नहीं जाएगा. पीढि़यों से जिस गांव में उस का परिवार रहता आया हो, वहां उसे दो जून की रोटी कमाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.

नोएडा में अब्दुल एक बहुमंजिला औफिस के बाहर सड़क के किनारे चाय का छोटा सा स्टाल लगाता था, जिस से वह इतना कमा लेता था कि परिवार का गुजारा चल जाता था. यह बात उस को मालूम थी कि गांव में केवल खेती के मौसम में ही काम आसानी से मिल पाता?है. खेती के मौसम के बाद बाकी के महीनों में वह गांव से सटे ब्लौक में चाय का स्टाल लगाया करेगा. गांव में खर्च भी कम होता है, तो उस का काम कम आमदनी में भी चल जाएगा.

धान रोपनी के मौसम में अब्दुल और उस की बीवी को धान बोने का काम मिल गया. 2 महीने आराम से कट गए. धान रोपनी के बाद अब्दुल फिर से बेरोजगार हो गया था. उस ने अपनी छोटी सी जमापूंजी से एक ठेला खरीदा और ब्लौक के एक नुक्कड़ के पीछे चाय का स्टाल लगाना शुरू कर दिया.

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