पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- उतरन: भाग 1
लेखिका- रेखा विनायक नाबर
‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’
‘‘मैं भी आता हूं.’’
‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मु?ो ही संभालनी होगी.’’
मैं दबेपांव भाभी के घर गया.
‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’
‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’
‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’
‘‘हां...हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’
‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’
‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’
‘‘और शमु?’’
फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.
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‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’
उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’
‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’
‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’
मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.
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