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लेखिका- अर्चना वाधवानी   

‘‘बिलकुल, तभी तो तुम ने मुझ से कल की सारी बातें छिपाईं,’’ उन के दुखी स्वर से मैं और दुखी थी.

‘‘मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी. बस, इसलिए मैं ने आप को कुछ नहीं बताया,’’ मैं रो पड़ी.

‘‘नैना, मैं पराया नहीं हूं, तुम्हारा अपना...’’ वह आगे नहीं बोल पाए. मैं उन के कंधे पर सिर रख कर सिसक पड़ी थी.

कुछ ही दिन बाद...

‘‘नैना, तैयार रहना, आज कहीं खास जगह चलना है, ठीक 5 बजे,’’ कह कर आलोक ने फोन रख दिया. मैं ने घड़ी देखी तो 4 बज रहे थे.

मैं धीरेधीरे तैयार होने लगी. अपनी शक्ल शीशे में देखी तो चौंक गई. लग ही नहीं रहा था कि मेरा चेहरा है. गुलाबी रंगत गायब हो गई थी. आंखों के नीचे काले गड्ढे पड़ गए थे. कितने ही दिनों से खुद को शीशे में देखा ही नहीं था. सारा दिन भाइयों की बातें ध्यान में आती रहतीं. भाइयों का तो दुख था ही उस पर बाऊजी से मिल न पाने का गम भीतर ही भीतर दीमक की तरह मुझे खोखला करता जा रहा था.

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आलोक दुखी न हों इसलिए उन से कुछ न कह कर मैं अपना सारा दुख डायरी में लिखती जा रही थी. बचपन से ही मुझे डायरी लिखने का शौक था. पता नहीं अब शादी से पहले की डायरी किस कोने में पड़ी मेरी तरह जारजार आंसू बहाती होगी. शादी के बाद वह डायरी बाऊजी के पास ही रह गई थी.

‘‘आलोक, हम कहां जा रहे हैं?’’ मैं आलोक के साथ कार में बैठी हुई थी.

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