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प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन

वह दिमाग पर जोर देते हुए बोला, ‘‘करीब 6-7 महीने पहले की बात है. मैं रंजन की दुकान पर खड़ा था. तभी नजीर वहां यह घंटा ले कर आया था. उस का रंग उस वक्त काला था और मिट्टी में लिथड़ा हुआ था. मेरे सामने ही रंजन ने उसे तराजू में डाला और तौल कर कुछ रुपए नजीर के हाथ पर रख दिए. उस के बाद मैं वहां से चला गया. पता नहीं फिर उन दोनों के बीच क्या बात हुई.’’

यह एक सनसनीखेज खबर थी कि लाखों का घंटा कौडि़यों में बिक गया और बेचने वाला दानेदाने को मोहताज था. गरीब नजीर जेल में बंद था. मैं फौरन सुगरा के घर पहुंचा, लेकिन घर बंद था. लोगों का खयाल था कि भूख और गरीबी से तंग आ कर रोजी की तलाश में वह किसी और कस्बे में चली गई होगी.

मुझे बेहद अफसोस हो रहा था. उस के मासूम बच्चे याद आ रहे थे. उसे तलाश करने का हुक्म दे कर मैं थाने आ गया. वहां से घंटा ले कर अमृतसर के लिए रवाना हो गए. क्योंकि नजीर अमृतसर में ज्यूडीशियल रिमांड पर जेल में था. मैं ने उसे कपड़े में लिपटा हुआ घंटा दिखा कर पूछा, ‘‘क्या यह घंटा कुछ महीने पहले तुम ने रंजन को बेचा था. इसे लाए कहां से थे?’’

‘‘हां बेचा था. मैं अपने घर से लाया था. बैसाखी के पहले की बात है साहब, एक दिन तेज बारिश हुई. मेरे घर की दीवार गिर गई. जब दोबारा दीवार उठाने के लिए बुनियाद रखी तो यह घंटा मिला.

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