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प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन

मैं ने उन दोनों को गिरफ्तार कर के जेल में डाल दिया और सख्ती भी की, पर दोनों रोते रहे, कसमें खाते रहे कि उन्होंने कुछ नहीं किया है. मैं डीएसपी के हुक्म के आगे मजबूर था. डीएसपी के जाने के बाद मैं ने सुगरा को छोड़ दिया, क्योंकि उस की हालत बहुत बुरी थी. वह बच्चों के लिए तड़प रही थी.

मेरी हमदर्दी सुगरा के साथ थी. क्योंकि वह बेकसूर लग रही थी, पर नींद की गोलियां का मामला साफ होने के बाद ही यकीन से कुछ कहा जा सकता था. मुझे यह पता करना था कि गोलियां कहां से खरीदी गई थीं. कस्बे में एक ही बड़ी दुकान थी. उस के मालिक गनपत लाल को मैं जानता था.

उस ने पूछताछ के बाद बताया कि करीब एक महीने पहले रंजन सिंह उस की दुकान से कुछ दवाइयां ले कर गया था, जिस में नींद की गोलियां भी शामिल थीं.

यह एक पक्का सबूत था. मैं ने उस से बयान लिखवा कर साइन करवा लिया. मैं वापस थाने पहुंचा तो सुगरा नजीर से मिलने आई थी. वही बुरे हाल, फटे कपड़े, रोता बच्चा, अखबार में लिपटी 2 रोटियां और प्याज. उसे देख कर बड़ा तरस आया. काश, मैं उस के लिए कुछ कर सकता.

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दूसरे दिन गांव में एक झगड़ा हो गया. दोनों पार्टियां मेरे पास आ गईं. मैं उन दोनों की रिपोर्ट लिखवा रहा था. तभी मुझे खबर मिली कि ढाब का नंबरदार लहना सिंह मुझ से मिलने आया है. उस ने अंदर आ कर कहा, ‘‘नवाज साहब, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है. कुछ वक्त दे दें.’’

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