लेखक- पुष्पा भाटिया
हर व्यक्ति के सोचने का तरीका अलग होता है. जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति जिस तरह सोचता हो, दूसरा भी उसी तरह सोचे. इसी तरह यह भी जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति की सोच को दूसरा पसंद करे. हां, सार्थक सोच से जीवन की धारा जरूर बदल जाती है जहां एक स्थिरता मिलती है, मन को सुकून मिलता है. यह बात मैं ने उस दिन अच्छी तरह से जानी जिस दिन मैं श्रीमती सान्याल के घर किटी पार्टी में गई थी. उस एक दिन के बाद मेरी सोच कब बदली यह खयाल कर मैं अतीत में खो सी गई.
दरवाजे पर उन की नई बहू मानसी ने हम सब का स्वागत किया. मिसेज सान्याल एकएक कर जैसेजैसे हम सभी सदस्याओं का परिचय, अपनी नई बहू से करवाती जा रही थीं वह चरण स्पर्श कर के सब से आशीर्वाद लेती जा रही थी. मानसी जैसे ही मेरे चरण छूने को आगे बढ़ी मैं ने प्यार से उसे यह कह कर रोक दिया, ‘बस कर बेटी, थक जाएगी.’
‘क्यों थक जाएगी?’ श्रीमती सान्याल बोलीं, ‘जितना झुकेगी उतनी ही इस की झोली आशीर्वाद के वजनों से भरती जाएगी.’
श्रीमती सान्याल तंबोला की टिकटें बांटने लगीं तो मानसी सब से पैसे जमा कर रही थी. खेल के बीच में मानसी रसोई में गई और थोड़ी देर में सब के लिए गरम सूप और आलू के चिप्स ले कर आई, फिर बारीबारी से सब को देने लगी.
तंबोला का खेल खत्म हुआ. खाने की मेज स्वादिष्ठ पकवानों से सजा दी गई. मानसी चौके में गरम पूरियां सेंक रही थी और श्रीमती सान्याल सब को परोसती जा रही थीं. दहीबड़े का स्वाद चखते समय औरतें कभी सास बनीं सान्याल की प्रशंसा करतीं तो कभी बहू मानसी की.
थोड़ी देर बाद हम सब महिलाओं ने श्रीमती सान्याल से विदा ली और अपनेअपने घर की ओर चल दीं.
घर लौट कर मेरे दिमाग पर काफी देर तक सान्याल परिवार का चित्र अंकित रहा. सासबहू के बीच न किसी प्रकार का तनाव था न मनमुटाव. प्यार, सम्मान और अपनत्व की डोर से दोनों बंधी थीं. हो सकता है यह सब दिखावा हो. मेरे मन से पुरजोर स्वर उभरा, ब्याह के अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं टकराहट और कड़वाहट तो बाद में ही पैदा होती हैं, और तभी अलगअलग रहने की बात सोची जाती है. इसीलिए क्यों न ब्याह होते ही बेटेबहू को अलग घर में रहने दिया जाए.
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श्रीमती सान्याल मेरी बहुत नजदीकी दोस्त हैं. पढ़ीलिखी शिष्ट महिला हैं. मिस्टर सान्याल मेरे पति अविनाश के ही दफ्तर में काम करते हैं. उन का बेटा विभू और मेरा राहुल, हमउम्र हैं. दोनों ने एक साथ ही एम.बी.ए. किया था. अब दोनों अलगअलग बहु- राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.
श्रीमती सान्याल शुरू से ही संयुक्त परिवार की पक्षधर थीं. विभू के विवाह से पहले ही वह जब तब बेटेबहू को अपने साथ रखने की बात कहती रही थीं. लेकिन मेरी सोच उन से अलग थी. पास- पड़ोस, मित्र, परिजनों के अनुभव सुन कर यही सोचती कि कौन पड़े इन झमेलों में.
मैं ने एक बार श्रीमती सान्याल से कहा था, हर घर तो कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ है. सौहार्द, प्रेम, घनिष्ठता, अपनापन दिखाई ही नहीं देता. परिवारों में, सास बहू की बुराई करती है, बहू सास के दुखड़े रोती है.
इस पर वह बोली थीं, ‘घर में रौनक भी तो रहती है.’ तब मैं ने अपना पक्ष रखा था, ‘समझौता बच्चों से ही नहीं, उन के विचारों से करना पड़ता है.’
‘शुरू में सासबहू का रिश्ता तल्खी भरा होता है किंतु एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी न बन कर एकदूसरे के अस्तित्व को प्यार से स्वीकारा जाए और यह समझा जाए कि रहना तो साथसाथ ही है, तो सब ठीक रहता है.’’
ब्याह से पहले ही मैं ने राहुल को 3 कमरे का एक फ्लैट खरीदने की सलाह दी पर अविनाश चाहते थे कि बेटेबहू हमारे साथ ही रहें. उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा भी था कि राधिका नौकरी करती है. दोनों सुबह जाएंगे, रात को लौटेंगे. कितनी देर मिलेंगे जो विचारों में टकराहट होगी.
‘विचारों के टकराव के लिए थोड़ा सा समय ही काफी होता है,’ मैं अड़ जाती, ‘समझौता और समर्पण मुझे ही तो करना पड़ेगा. बहूबेटा, प्रेम के हिंडोले में झूमते हुए दफ्तर जाएं और मैं उन के नाजनखरे उठाऊं?’
अविनाश चुप हो जाते थे.
फ्लैट के लिए कुछ पैसा अविनाश ने दिया बाकी बैंक से फाइनेंस करवा लिया गया. राधिका के दहेज में मिले फर्नीचर से उन का घर सज गया. बाकी सामान खरीद कर हम ने उन्हें उपहार में दे दिया. कुल मिला कर राहुल की गृहस्थी सज गई. सप्ताहांत पर वे हमारे पास आ जाते या हम उन के पास चले जाते थे.
मैं इस बात से बेहद खुश थी कि मेरी आजादी में किसी प्रकार का खलल नहीं पड़ा था. अविनाश सुबह दफ्तर जाते, शाम को लौटते. थोड़ा आराम करते, फिर हम दोनों पतिपत्नी क्लब चले जाते थे. वह बैडमिंटन खेलते या टेनिस और मैं अकसर महिलाओं के साथ गप्पगोष्ठी में व्यस्त रहती या फिर ताश खेलती. इस सब के बाद जो भी समय मेरे पास बचता उस में मैं बागबानी करती.
पिछले कुछ दिनों से श्रीमती सान्याल दिखाई नहीं दी थीं. क्लब में भी मिस्टर सान्याल अकेले ही आते थे. एक दिन पूछ बैठी तो हंस कर बोले, ‘आजकल घर में ही रौनक रहती है. आप क्यों नहीं मिल आतीं?’
अच्छा लगा था मिस्टर सान्याल का प्रस्ताव. एक दिन बिना पूर्व सूचना के मैं उन के घर चली गई. वह बेहद अपनेपन से मिलीं. उन के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव तिर आए. कुछ समय शिकवेशिकायतों में बीत गया. फिर मैं ने उलाहना सा दिया, ‘काफी दिनों से दिखाई नहीं दीं, इसीलिए चली आई. कहां रहती हो आजकल?’
मैं सोच रही थी कि इतना सुनते ही श्रीमती सान्याल पानी से भरे पात्र सी छलक उठेंगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. वह सहज भाव में बोलीं, ‘विभू के विवाह से पहले मैं घर में बहुत बोर होती थी इसीलिए घर से बाहर निकल जाती थी या फिर किसी को बुला लेती थी. अब दिन का समय घर के छोटेबड़े काम निबटाने में ही निकल जाता है. शाम का समय तो बेटे और बहू के साथ कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता.’
संतुष्ट, संतप्त, मिसेज सान्याल मेरे हाथ में एक पत्रिका थमा कर खुद रसोई में चाय बनाने के लिए चली गईं.
चाय की चुस्की लेते हुए मैं ने फिर कुरेदा, ‘काफी दुबली हो गई हो. लगता है, काम का बोझ बढ़ गया है.’
‘आजकल मानसी मुझे अपने साथ जिम ले जाती है’, और ठठा कर वह हंस दीं, ‘उसे स्मार्ट सास चाहिए,’ फिर थोड़े गंभीर स्वर में बोलीं, ‘इस उम्र में वजन कम रहे तो इनसान कई बीमारियों से बच जाता है. देखो, कैसी स्वस्थ, चुस्तदुरुस्त लग रही हूं?’
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