मैं अपनी मां के साथ गरमागरम चाय पी रही थी. मां कुछ दिन पूर्व ही भारत से आई थीं. बातें शुरू होने पर कहां खत्म होंगी, यह हम दोनों को ही पता नहीं होता था. इतने दिनों बाद हम मांबेटी एकदूसरे से मिले थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. रात का 9 बजा था. मां से मैं ने कहा, ‘‘अंकुर के पिताजी होंगे,’’ पर दरवाजा खोला तो पति के स्थान पर उन के मित्र सुहास को खड़े देखा. मैं ने पूछा, ‘‘सुहास भाई साहब, इतनी रात में कैसे कष्ट किया आप ने?’’
मेरे प्रश्न का उत्तर न दे कर उन्होंने ही प्रश्न किया, ‘‘भाभीजी, प्रशांत अब तक आए नहीं क्या?’’
इंगलैंड की नवंबर माह की कंपकंपा देने वाली सर्दी को अपने बदन पर अनुभव करते हुए मैं ने पूछा, ‘‘उन का पता तो आप को होना चाहिए, सुहास भाई, भला मुझ से क्या पूछते हैं?’’
स्ट्रीट लैंप की पीली अलसाई रोशनी में सुहास का चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था. पर फिर भी मैं ने उन्हें बुलाने की अपेक्षा जल्दी टाल देना ही उचित समझा.
‘‘उन्हें कल शाम मेरे पास भेज दीजिएगा, भाभीजी, अच्छा नमस्ते,’’ और लंबेलंबे डग भरते हुए वह चले गए.
अब तक मां भी मेरे पीछे आ खड़ी हुई थीं. अंदर आए तो चाय ठंडी हो चुकी थी.
मां ने पूछा, ‘‘और चाय बना दूं तेरे लिए?’’
मैं ने मना कर दिया.
मां बोलीं, ‘‘प्रेरणा, मुझे तो नींद आ रही है अब. तू अभी जागेगी क्या?’’
मैं ने मां से कहा, ‘‘आप सो जाइए, मां. मैं कुछ देर बैठूंगी अभी. आप तो जानती हैं बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आएगी मुझे.’’
‘‘जैसी तेरी इच्छा,’’ कह कर मां ऊपर सोने चली गईं.
मां के ऊपर जाने के थोड़ी देर पश्चात ही यह आ गए. बच्चों व मां के बारे में पूछने लगे. मैं ने कहा, ‘‘वे लोग तो सो गए. आप का खाना लगा दूं?’’
यह बोले, ‘‘हां, लगा दो और तुम चाहो तो अब सो जाओ, मैं अभी कपड़े बदल कर आता हूं.’’
जल्दी से इन का खाना गरम कर के मेज पर रखा, तभी यह कपड़े बदल कर आ गए.
खाना खा कर बोले, ‘‘भई, मुझे तो नींद आ रही है, आप को कब आएगी?’’
मैं ने कहा, ‘‘आप चलिए, मैं आ रही हूं.’’
जैसी कि मेरी शुरू से ही आदत है, सोने के लिए जाने से पूर्व बैठक को व्यवस्थित कर देती हूं ताकि सुबह कुछ आराम मिले. ऊपर गई तो कमरे में घुसते ही इन्होंने जानापहचाना प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘कोई आया तो नहीं था, प्रेरणा?’’
मैं ने कहा, ‘‘अब सोने भी दीजिए, कल से एक पैड खाने की मेज पर रख दूंगी और उस में रोज आनेजाने वालों के नाम व काम की सूची लिख दिया करूंगी. आखिर मुफ्त की सहायक जो हूं आप की.’’
तब यह हंस कर बोले, ‘‘बता भी दो.’’
मैं ने कहा, ‘‘आप के मित्र सुहास आए थे. उन्होंने आप को कल अपने घर बुलाया है.’’
‘‘ठीक है. मिल लूंगा. मां को कोई तकलीफ तो नहीं है?’’
मैं ने कहा, ‘‘नींद बहुत आती है उन्हें, बाकी सब तो ठीक है.’’
थोड़ी देर बाद इन के खर्राटों की आवाज शांत वातावरण में तैरने लगी. पता नहीं, कुछ लोग बिस्तर पर लेटते ही कैसे सो जाते हैं. खर्राटे सुनते हुए मैं सोने की नाकाम चेष्टा करने लगी और सोचने लगी उस स्त्री के बारे में, जिस से उसी दिन अंकुर के स्कूल में मुलाकात हुई थी. गहरा सांवला रंग, बड़ीबड़ी पर खोईखोई आकर्षक आंखें, घने काले बाल, लंबा कद, अंगरेजी पहनावा और होंठों पर मधुर मुसकान. उसे सुंदर तो नहीं कहा जा सकता था, पर चेहरे पर कुछ ऐसे सात्विक भाव थे कि नजरें हटाने को मन नहीं करता था.
मेरी ही तरह वह भी अपनी बच्ची को ले कर उस कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूल आई थी, जिस के तहत सप्ताह में 1 या 2 दिन मां को स्वयं बच्चे के साथ स्कूल में रह कर उस की देखभाल करनी पड़ती है ताकि बच्चा स्कूल आनेजाने में अभ्यस्त हो सके. मैं ने उसे अपनी ओर देखते पाया. मैं यह तो समझ गई कि वह दक्षिण भारतीय है, पर यह पता नहीं था कि वह हिंदी जानती है या नहीं. थोड़ी देर हम दोनों ही चुप रहे. जब स्कूल के सभी बच्चे बाहर बगीचे में पहुंचे तो वह अपनी बच्ची को झूला झूलते हुए देख रही थी और मैं अपने बेटे को लकड़ी की गाड़ी पर बैठा रही थी.
उस की आंखों में मित्रवत भाव देख कर मैं ने ही मौन तोड़ा था और अंगरेजी में पूछा था, ‘क्या आप हिंदी बोल सकती हैं?’ इस पर वह बोली, ‘यस, थोड़ीथोड़ी, बहुत नहीं,’ और उस का प्रमाण भी उस ने फौरन ही यह पूछ कर दे दिया, ‘आप कहां रहते हैं?’
मैं उस के प्रश्न का उत्तर दे कर पूछ बैठी, ‘आप का नाम?’
‘तपस्या,’ वह बोली.
जैसा कि सर्वविदित है, 2 स्त्रियां एकदूसरे का नाम व पता जान कर ही संतुष्ट नहीं होतीं, कम से कम समय में एकदूसरे के बारे में भी कुछ जान लेने की उत्सुकता स्त्री का स्वभाव है. अत: उस ने टूटीफूटी हिंदी में बताया, ‘मैं फिजी की रहने वाली हूं. मेरे विवाह को 3 वर्ष हो चुके हैं, मेरे पति मुसलमान हैं और यहीं एक फैक्टरी में काम करते हैं. मेरी एक बेटी है और इस समय मैं गर्भवती हूं.’