पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- समर्पण: भाग 1
‘‘चाहे इस की वजह से हम जैसों को सदा लोगों के ताने ही क्यों न सुनने पड़ें… हमारी सारी सामाजिक समरसता ही क्यों न चौपट होने लगे…और फिर आप किन दलितों और पिछड़ों की बात कर रहे हैं? क्या वास्तव में उन्हें आरक्षण का लाभ मिल पाता है? मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि असली मलाई तो हम या आप जैसे लोग ही जीम जाते हैं. क्या यह सच नहीं है कि साधनसंपन्न होते हुए भी आप के बेटे को इंजीनियरिंग में दाखिला आरक्षित कोटे से ही मिला था?’’
‘‘आखिर इस में बुराई क्या है?’’
‘‘बुराई है, जब आप आरक्षण पा कर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गए हैं तो क्या अब भी आरक्षण के प्रावधान को अपनाकर आप किसी जरूरतमंद का हक नहीं छीन रहे हैं?’’
‘‘बहुत बकरबकर किए जा रहे हो, तुम जैसा नीच इनसान मैं ने पहले नहीं देखा. जिस थाली में अब तक खाते रहे हो उसी में छेद करने की सोचने लगे. अब तुम चले जाओ. वरना…’’ मंत्रीजी अपना आपा खो बैठे और अपना रौद्र रूप दिखाते हुए क्रोध से भभक उठे.
डा. सीताराम ने भी उन से ज्यादा उलझना ठीक नहीं समझा और चुपचाप चले गए.
आलोक यह सब देख कर स्तब्ध था. डा. सीताराम के पिता मंत्रीजी के अच्छे मित्रों में हुआ करते थे, उन के गर्दिश के दिनों में उन्होंने उन्हें बहुत सहारा दिया था और मंत्रीजी के कंधे से कंधा मिला कर उन की हर लड़ाई में वह साथ खड़े दिखते थे. यह बात और है कि जैसेजैसे मंत्रीजी का कद बढ़ता गया, डा. सीताराम के पिता पीछे छूटते गए या कहें मंत्रीजी ने ही यह सोच कर कि कहीं वह उन की जगह न ले लें, उन से पीछा छुड़ा लिया.
आलोक मंत्रीजी के साथ तब से था जब वह अपने राजनीतिक कैरियर के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस समय वह बेकार था. पता नहीं उस समय उस ने मंत्रीजी में क्या देखा कि उन के साथ लग गया. उन्हें भी उस जैसे एक नौजवान खून की जरूरत थी जो समयानुसार उन की स्पीच तैयार कर सके, उन के लिए भीड़ जुटा सके और उन के आफिस को संभाल सके. उस ने ये सब काम बखूबी किए. उस की लिखी स्पीच का ही कमाल था कि लोग उन को सुनने के लिए आने लगे. धीरेधीरे उन की जनता में पैठ मजबूत होने लगी और वह दिन भी आ गया जब वह पहली बार विधायक बने. उन के विधायक बनते ही आलोक के दिन भी फिर गए पर आज डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार…वह सिहर उठा.
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अपने पिता की उसी दोस्ती की खातिर डा. सीताराम अकसर मंत्रीजी के घर आया करते थे तथा एक पुत्र की भांति जबतब उन की सहायता करने के लिए भी तत्पर रहते थे पर आज तो हद ही हो गई…उन की इतनी बड़ी इंसल्ट…जबकि उन का नाम शहर के अच्छे डाक्टरों में गिना जाता है. क्या इनसान कुरसी पाते ही इस हद तक बदल जाता है?
वास्तव में मंत्रीजी जैसे लोगों की जब तक कोई जीहजूरी करता है तब तक तो वह भी उन से ठीक से पेश आते हैं पर जो उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है उन से वे ऐसे ही बेरहमी से पेश आते हैं…अगर बात ज्यादा बिगड़ गई तो उस को बरबाद करने से भी नहीं चूकते.
आलोक अब तक सुनता रहा था पर आज वह वास्तविकता से भी परिचित हुआ…सारे मंत्री तथा वरिष्ठ आफिसर कुछ भी होने पर विदेश इसीलिए भागते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने डाक्टरों की एक ऐसी जमात पैदा की है जो ज्ञान के नाम पर शून्य है फिर वह क्यों रिस्क लें? जनता जाए भाड़ में, चाहे जीए या मरे…उन्हें तो बस, वोट चाहिए.
आज यहां हड़ताल, कल वहां बंद, कहीं रैली तो कहीं धरना…अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए तोड़फोड़ करवाने से भी नेता नहीं चूकते. ऐसा करते वक्त ये लोग भूल जाते हैं कि वे किसी और की नहीं, अपने ही देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं. आम जनजीवन अलग अस्तव्यस्त हो जाता है, अगर इस सब में किसी की जान चली गई तो वह परिवार तो सदा के लिए बेसहारा हो जाता है पर इस की किसे परवा है. आखिर ऐसे दंगों में जान तो गरीब की ही जाती है. सामाजिक समरसता की परवा आज किसे है जब इन जैसों ने पूरे देश को ही विभिन्न जाति, प्रजातियों में बांट दिया है.
आलोक का मन कर रहा था कि वह मंत्रीजी का साथ छोड़ कर चला जाए. जहां आदमी की इज्जत नहीं वहां उस का क्या काम, आज उन्होंने डा. सीताराम के साथ ऐसा व्यवहार किया है कल उस के साथ भी कर सकते हैं.
मन ने सवाल किया, ‘तुम जाओगे कहां? जीवन के 30 साल जिस के साथ गुजारे, अब उसे छोड़ कर कहां जाओगे?’
‘कहीं भी पर अब यहां नहीं.’
‘बेकार मन पर बोझ ले कर बैठ गए… सचसच बताओ, जो बातें आज तुम्हें परेशान कर रही हैं, क्या आज से पहले तुम्हें पता नहीं थीं?’
‘थीं…’ कहते हुए आलोक हकला गया था.
‘फिर आज परेशान क्यों हो… अगर तुम छोड़ कर चल दिए, तो क्या मंत्रीजी तुम्हें चैन से जीने देंगे… क्या होगा तुम्हारी बीमार मां का, तुम्हारी 2 जवान बेटियों का जिन के हाथ तुम्हें पीले करने हैं?’
तभी सैलफोन की आवाज ने उस के अंतर्मन में चल रहे सवालजवाबों के बीच व्यवधान पैदा कर दिया. उस की पत्नी रीता का फोन था :
‘‘मांजी की हालत ठीक नहीं है… लगता है उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा. वहीं शुभदा को देखने के लिए भी बरेली से फोन आया है, वे लोग कल आना चाहते हैं… उन्हें क्या जवाब दूं, समझ में नहीं आ रहा है.’’
‘‘बस, मैं आ रहा हूं… बरेली वालों का जो प्रोग्राम है उसे वैसा ही रहने दो. इस बीच मां की देखभाल के लिए जीजी से रिक्वेस्ट कर लेंगे,’’ संयत स्वर में आलोक ने कहा. जबकि कुछ देर पहले उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.
‘‘आलोक, कहां हो तुम…गाड़ी निकलवाओ…हम 5 मिनट में आ रहे हैं,’’ मंत्रीजी की कड़कती आवाज में रीता के शब्द कहीं खो गए. याद रहा तो केवल उन का निर्देश…साथ ही याद आया कि आज 1 बजे उन्हें एक पुल के शिलान्यास के लिए जाना है.
उस के पास मंत्रीजी का आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं था…घर के हालात उसे विद्रोह की इजाजत नहीं देते. शायद उसे ऐसे माहौल में ही जीवन भर रहना होगा, घुटघुट कर जीना होगा. अपनी मजबूरी पर वह विचलित हो उठा पर अंगारों पर पैर रख कर वह अपने और अपने परिवार के लिए कोई मुसीबत मोल लेना नहीं चाहता था. और तो और, अब वह जब तक शिलान्यास नहीं हो जाता, घर भी नहीं जा पाएगा.
सैलफोन पर ‘हैलो…क्या हुआ…’ सुन कर उसे याद आया कि वह रीता से बात कर रहा था…न आ पाने की असमर्थता जताते हुए मां को तुरंत अस्पताल में शिफ्ट करने की सलाह दी. वह जानता था, रीता उस की बात सुन कर थोड़ा भुनभुनाएगी पर उस की मजबूरी समझते हुए सब मैनेज कर लेगी. आखिर ऐसे क्षणों को जबतब उस ने बखूबी संभाला भी है.