Writer- डा. अनुसूया त्यागी
‘अरे, यह क्या कर रहे हो?’ मैं ने जल्दी से अपने अंगूठे से दबा दिया. फिमोरल आरटरी कटी थी युवक की. उस व्यक्ति ने अपने अंगूठे से उस कटे स्थान को दबा कर काफी समझदारी का परिचय दिया था.
‘‘मांजी, मांजी,’’ एक आदमी अर्जुन की मां को झझकोर रहा है. मानो वह उन्हें सोए से जगाने का प्रयत्न कर रहा हो, ‘‘होश में आओ मांजी, यह अर्जुन है. आप का बेटा,’’ लोग अर्जुन की मां को रुलाना चाह रहे हैं, मैं वर्तमान में लौटता हूं. सब सोच रहे हैं कि यदि यह नहीं रोएगी तो इस के दिमाग पर असर होगा. पर वह वैसी ही बैठी है, अश्रुविहीन आंखें लिए हुए.
क्या रो पाई थी उस युवक की मां? मैं फिर अतीत में लौट जाता हूं. क्या उस के दिमाग पर असर नहीं हुआ होगा? कैसे जी रही होगी अब तक, या मर गई होगी? पुराना दृश्य फिर कौंधता है.
फिमोरल आरटरी दबा कर बैठा हूं और अपने साथ के दूसरे सीएमओ को कहता हूं कि जल्दी से शल्यचिकित्सक को बुलाइए. औपरेशन थिएटर में कहलवा दीजिए. एक फिमोरल आरटरी को रिपेयर करना है. इतने में एक दूसरे युवक को लोग अंदर ला रहे हैं. 3-4 व्यक्तियों ने उसे सहारा दिया हुआ है. वह लंबीलंबी सांसें ले रहा है. मेरे पास आ कर सब रुकते हैं और कहते हैं, ‘डाक्टर साहब, इस युवक को देखिए, यह इस के स्कूटर के पीछे बैठा हुआ था, पलंग पर लेटे उस युवक की ओर इशारा करते हैं जिस की फिमोरल आरटरी मैं दबा कर बैठा हूं. मैं दूसरे डाक्टर की ओर इशारा कर देता हूं क्योंकि मेरे हाथ व्यस्त हैं. डाक्टर विमल मरीज का निरीक्षण करते हैं और उस की हिस्टरी लेते हैं.
‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.
‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’
‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.
‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.
‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’
मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.
डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.
‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’
‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’
सुविधा, मेरी पत्नी, मेरी मनोदशा भांप कर धीरे से मेरा हाथ दबाती है. शब्द मेरे मुंह से निकलते हैं प्रत्यक्ष रूप में, ‘‘आप लोग लाश को उठवा कर निगम बोध घाट ले चलिए. इस की मां को तो कोई होश नहीं है.’’ वास्तव में कोई होश नहीं है. इन आंखों में अभी तक कोई भाव नहीं है, अभी भी अश्रुविहीन आंखें सुदूर, अंधकारमय भविष्य की ओर निहारतीं. इतना बड़ा वज्रपात और यह मौन…
काश, उस बस ड्राइवर ने सोचा होता. उस की असावधानी और लापरवाही कैसे एक समूची जिंदगी को खत्म कर देती है. जिसे अभी पूरा जीवन जीना था, असमय ही कालकवलित हो गया और उस के साथ ही एक पूरा परिवार, जिस में इस अभागी मां का अपने इस कलेजे के टुकड़े के अलावा पूरे संसार में कोई नहीं है, ध्वस्त हो गया है. उस के एकमात्र सहारे की डोर ही टूट गई और उस का खुद का जीवन भी शीशे की तरह किरिचकिरिच हो कर बिखर गया है. कैसे जिएगी यह. काश, वह ड्राइवर सोच पाता, देख पाता.
मुझे एक फिल्म याद आ रही है. ऐसे समय में फिल्म याद आना स्वयं को धिक्कारने को मन करता है, पर मन ही तो है, विचारों पर कोई वश तो नहीं इंसान का. उस फिल्म में एक युवक एक व्यक्ति को कुचल देता है. सर्दी के कोहरे में उसे वह दिखाई नहीं देता और अदालत में जज साहब दंडस्वरूप उस युवक को उस व्यक्ति के परिवार का पालनपोषण करने का भार सौंपते हैं और तब उस युवक को अपने अपराध का एहसास होता है कि कैसे उस की असावधानी ने पूरे परिवार का जीवन संकट में डाल दिया है.
काश, हमारी अदालतें ऐसा ही न्याय कर पातीं. ऐसे ड्राइवरों को इसी प्रकार की सजा दी जाती. जेल की सजा काटने से तो उन्हें उस परिवार के संकट का अनुभव नहीं होता जिस के परिवार का व्यक्ति मौत के मुंह में जाता है. अरे, मैं यह किन विचारों में बह गया हूं, सब लोग तो निगम बोध घाट रवाना हो गए हैं. मैं भी कार में बैठता हूं. स्टीयरिंग घुमाने के साथसाथ मन फिर घूम जाता है. 15-20 औरतें कैजुअल्टी में घुसी चली आ रही हैं. लड़के की मां आगेआगे रोती हुई आरही है, ‘अरे डाक्टर साहब, मेरे बच्चे को क्या हो गया, इसे बचा लीजिए. इस की तो बरात जाने वाली है. अभी एक घंटे के बाद इस की शादी होनी है. यह क्या हो गया मेरे लाल को. मैं ने तो बहुत मना किया था तुझे बाजार जाने को. पर नहीं माना,’ वह जोरजोर से रोने लगती है.