दोस्तो, मुझे पकौड़े बनाने का कोई तजरबा नहीं है. मैं ने तो कभी घर में भी पकौड़े नहीं बनाए थे. पर जब सरकार ने कहा है कि पकौड़ों में लखपति बनाने की ताकत है तो मैं ने सरकार के पकौड़ों का हिस्सा होने के लिए आव देखा न ताव, घर के स्टोर से टूटीफूटी कड़ाही निकाली, दादा के वक्त का कैरोसिन का चूल्हा साफ किया और एक परात में बेसन के बदले मक्के का आटा, नमक, मिर्च पता नहीं किस के स्वाद के हिसाब से मिला, सड़े आलू काट अपने महल्ले के किनारे की सरकारी जमीन पर शान से पकौड़ा भंडार खोल दिया और उस का नाम रखा ‘सरकारी पकौड़ा भंडार’. पकौड़ों के उस भंडार का नाम सरकारी था इसलिए किसी भी सरकारी मुलाजिम की मुझ से यह पूछने की हिम्मत न हुई कि सरकारी जमीन पर पकौड़ा भंडार क्यों खोला? मुझे पता था कि कोई सरकारी मुलाजिम सब से पंगा ले सकता है पर अपनी सरकार के बंदों से नहीं.

दोस्तो, सरकारी जमीन पर सरकारी नाम का पकौड़ा भंडार नहीं खुलेगा, तो क्या अपने घर में खुलेगा? सरकार के नाम की दुकानें सरकार की गैरकानूनी तौर पर कब्जाई जगह पर ही खुल कर शोभा पाती हैं. नियमानुसार सरकारी जमीन पर सरकारी बंदे ही कब्जा कर सकते हैं. आम आदमी सरकारी जमीन पर कब्जा करना तो दूर, उस ओर देखने की भी हिम्मत करे तो उस की आंखें निकाल दी जाएं.

अपने पकौड़ा भंडार का ‘सरकारी पकौड़ा भंडार’ नाम रखने के चलते सब ने यही सोचा कि मैं सरकार का राइट नहीं तो लैफ्ट हैंड जरूर हूं, बल्कि थानेदार साहब ने तो मेरे कच्चे पकौड़ों की तारीफ करते हुए मेरी पीठ थपथपा कर यहां तक कह डाला कि ‘सरकारी पकौड़ा भंडार’ के लिए फर्नीचर की जरूरत हो तो बता देना. आधे रेट में दिलवा दूंगा. अगर कोई विपक्ष वाला मेरे ‘सरकारी पकौड़ा भंडार’ की ओर आंख उठा कर भी देखे तो वह थानेदार उस की आंख तो आंख, आंत तक निकाल कर हाथ में दे देगा.

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