जब से नई सरकार बनी है, तब से पूरे देश को परेशान करने वाली मुन्नी खुद परेशान हो चली है बेचारी. जिस मुन्नी को कभी पूरा शहर आंखें फाड़फाड़ कर देखा करता था, आज वही मुन्नी अपनी बैंक की पासबुक में हर बार ऐंट्री करवाने के बाद आंखें फाड़फाड़ कर देखती रहती है कि सरकार द्वारा ऐलान किए गए पैसे आए कि नहीं. पर बेचारी को हर बार निराशा का ही सामना करना पड़ता है.
कल यही मुन्नी मिली. चंडीगढ़ के 17 सी चौक पर भुट्टे भूनती हुई. बिखरे हुए बाल, पिचके हुए गाल. हाय रे, मुन्नी की क्या दशा कर दी सरकार ने. परदे पर थिरकने वाली मुन्नी भुट्टे बेचती हुई. हाय रे, बुरे दिन न… अच्छे दिनों की पीठ पर चढ़ कर तुम कहां से आ गए? जाने कहां गए वो दिन, जो सरकार ने बताए थे. उन दिनों के बहाने मैं ने भी इस दिल को न जाने क्याक्या सब्जबाग दिखाए थे.
उस वक्त कभी पूरे देश पर राज करने वाली मुन्नी की बदहाली देख कर बेहद दुख हुआ. काश, मुन्नी के ये बुरे दिन मेरे हो जाते. अपना क्या, मैं तो आकाश से गिरा खजूर पर अटका बंदा हूं.
जिस देश में लोगों को अपनी उंगलियों के नाखूनों पर नचाने वाली मुन्नी को भुट्टे भून कर पेट भरना पड़े, लानत है उस देश के भरे पेटों पर. माना, देश बदल रहा है. देश में बदलाव की बयार के साथ मुन्नी भी ऐसे बदल जाएगी, ऐसा तो सपने में भी न सोचा था.
मैं ने अधभुना भुट्टा लेने के बहाने उस से बात करने के इरादे से पूछा, ‘‘मुन्नी, और क्या हाल हैं?’’
‘‘क्या बताएं बाबू, जब से नई सरकार आई है, मत पूछो क्या हाल है,’’ उस ने तसले में गरमाते कोयलों पर रखा भुट्टा बदलते हुए कहा, तो जले दिल से एक बार फिर आह निकली.
‘‘क्यों, क्या हो गया हाल को? गौर से देखो तो जरा, हर किसी के पैर में सरकार ने कितनी उम्दा क्वालिटी की नाल ठोंक दी है. अब तो हर गधा आधारकार्ड में गधा होने के बाद भी घोड़े की तरह दौड़ने को मजबूर है,’’ मैं ने उस से बुद्धिजीवी होते हुए कहा, तो वह तनिक तनी. उसे लगा कि देश में और सब से डरने की जरूरत होती है, पर बुद्धिजीवी से डरने की कोई जरूरत नहीं होती. बातें करने के लिए बुद्धिजीवी सब से महफूज प्राणी है, क्योंकि उस के पास व्यावहारिक कुछ नहीं होता.
‘‘क्या है न बाबू, सोचा था कि सरकार बदलेगी, तो जनता की तकदीर बदले या न बदले, पर मुन्नी की तकदीर जरूर बदलेगी. नई सरकार किसी और की तकदीर में चार चांद लगाए या न लगाए, पर मुन्नी की तकदीर में चार चांद जरूर लगाएगी,’’ अचानक उसे लगा कि वह तो बुद्धिजीवी के साथ बेकार की बहस में पड़ गई है, ऐसे में मोटा वाला 20 रुपए का भुट्टा जल गया तो…?
मुन्नी ने मोटा वाला भुट्टा दूसरी ओर से भूनने के लिए पलटा और फिर हाथ बचाते हुए बोली, ‘‘क्या बताएं बाबू, बैंक की पासबुक में हर रोज 15 लाख की ऐंट्री देखतेदेखते आंखों का सूरमा तक बह गया है. 15 लाख तो दूर, अपने ही 5 सौ रुपए पासबुक के रखरखाव के बैंक वालों ने काट लिए. उस के बाद नोटबंदी ने रहीसही कमर भी तोड़ दी बाबू.
‘‘मत पूछो बाबू, मुंह पर घूंघट डाले कितने दिन अपने ही पैसों के लिए एटीएम के सामने सिर झुकाए खड़े रहना पड़ा कि कमर की सारी लचक जाती रही. पर फिर भी कमर की लोकलाज के लिए कमर पकड़े ही खड़ी रही कि शायद काला धन निकल आए और हमारे खाते में समा जाए, पर कुछ नहीं हुआ.’’
अभी नोटबंदी से मुन्नी उबरी भी नहीं थी कि सरकार ने जीएसटी लगा दिया. अब भुट्टे पर जीएसटी कौन देगा, तो कौन लेगा? ग्राहक भुट्टा खाएगा या जीएसटी चुकाएगा?
तो शुक्र मनाओ कि मुन्नी बाहर से जवान है. सो खराब पेट वाले अभी भी जीएसटी की परवाह किए बिना मुन्नी के आगे चौबीसों घंटे दर्द से पीडि़त कमर मटकाते हुए कच्चा भुट्टा खाने चले आते हैं. अगर मुन्नी बुढ़ा गई होती, तो…
‘‘तो सावधान मुन्नी, अब आ रहा है मिशन दो हजार उन्नी. उस के स्वागत के लिए तैयार हो जा.’’
‘‘नहीं बाबू, नहीं… अब मुन्नी बसंती की तरह और नहीं नाच सकती. जनता नाचे तो नाचे, मुन्नी अब पूरी तरह से टूट चुकी है. मुन्नी से नहीं संभाली जा रही अब अपनी ही चुन्नी. ऐसे में जयरामजी की मिशन दो हजार उन्नी.
‘‘यह क्या बाबू जला दिया न मेरा 20 रुपए का भुट्टा. सरकार झूठी, सरकार का हर वादा झूठा.’’