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हर औरत की तरह मेरी बीवी हूरा बेगम को भी जेवरात का बड़ा शौक है. मैं ने शादी पर जो जेवरात चढ़ाए थे, 20 साल गुजरने के बावजूद उन्हें यों सीने से लगाए रखती है जैसे बंदरिया अपने बच्चे को. मैं उस से कहता भी हूं, ‘हूरा बेगम इन्हें बेच कर नए फैशन के जेवरात खरीद लाओ. तुम्हारा दिल इन से अभी तक भरा नहीं?’

तो वो एकदम जज्बाती सी हो कर कहती है ‘मंसूर इंसान का उन चीजों से कभी दिल नहीं भरता जो उस के दिलोदिमाग में खुशगवार यादों की बस्ती आबाद कर देती हों. जब मैं आज की बोझिल जिम्मेदारियों से थक कर इन जेवरात की पिटारी खोलती हूं तो ऐसा लगता है कि मैं वही नई ब्याहता दुल्हन हूं और तुम अपने जज्बात से लरजते हाथों से मुझे ये जेवर पहना रहे हो.

तुम्हें याद है न, तुम ने चुपके से अपनी बहन सलमा से कहलवाया था कि हूरा से कह देना जब मैं आऊं तो वो फूलों का गहना पहने मिले, धातु के जेवरात उतार देना. मैं ने तुम्हारा हुक्म फौरन मान लिया था. मगर पता नहीं क्यों मुझे यह बदशगुनी सी लगी थी कि शादी की पहली रात ही दूल्हे को अपने रूप का जलवा दिखाए बगैर दुलहन जेवर उतार दे.

मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. तुम ने मेरे दुखी दिल को महसूस कर के पूछा था ‘हूरा क्या बात है तुम खुश नहीं लग रहीं. क्या मुझ से शादी तुम्हारी मरजी के बगैर हुई है?’ मैं ने तड़प कर तुम्हारे मुंह पर हाथ रख दिया था, याद है न. फिर तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने अपने दिल की बात बता दी थी.

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