सुबह से यह चौथा फोन था. फोन उठाने का बिलकुल मन नहीं था. पर मां सम झने को तैयार ही नहीं थी. फोन की घंटियां उस के मनमस्तिष्क पर हथौड़े की तरह पड़ रही थीं. आखिरकार, नेहा ने फोन उठा ही लिया.

‘‘हैलो, हां मां, बोलो.’’

‘‘बोलना क्या है, घर में सभी तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे हैं. तुम किसी की बात का जवाब क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘मां, इतना आसान नहीं है यह सब. मुझे सोचने का मौका तो दो,’’ नेहा ने बु झे स्वर में कहा.

‘‘सोचना क्या है इस में. तुम्हारी बहन की अंतिम इच्छा थी. क्या बिलकुल भी दया नहीं आती तुम्हें. उन बच्चों के मासूम चेहरों को तो देखो.’’

‘‘मां, मैं सम झती हूं पर...’’

‘‘पर क्या? वह सिर्फ तुम्हारी बहन नहीं थी. मां की तरह पाला था उस ने तुम्हें. आज जब उस के बच्चों को मां की जरूरत है तो तुम्हें सोचने का समय चाहिए?’’

‘‘मां, इतनी जल्दबाजी में इस तरह के फैसले नहीं लिए जाते.’’

‘‘हम ने भी दुनिया देखी है. ठीक है, अगर तुम्हें उन बच्चों की छीछालेदर होना मंजूर है तो फिर क्या कहा जा सकता है.’’

‘‘यह क्या बात हुई. तुम इस तरह की बातें क्यों कर रही हो?’’ नेहा बोली थी.

मां का गला भर आया, ‘‘तुम अभी मां नहीं बनी हो न. जब मां बनोगी तब औलाद का दर्द सम झोगी. फूल से बच्चे मां के बिना कलप रहे हैं और तुम हो कि सब दरवाजे बंद कर के बैठी हो.’’

नेहा का मन खराब हो चुका था. क्या इतना आसान था यह सब. 4 भाईबहनों में सब से छोटी थी वह. सब से छोटी. सब से लाड़ली. पर जिंदगी उसे इतने कड़वे और कठिन मोड़ पर ला कर खड़ा कर देगी, उस ने सोचा न था. दीदी की शादी के वक्त महज 17 साल की नाजुक उम्र थी उस की. पहली बार साड़ी पहनी थी. कितना उत्साह था. जीजाजी का जूता चुराऊंगी. 10,000 से एक रुपए कम न लूंगी. उन्हें खूब तंग करूंगी.

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