चुनाव का एक और दौर खत्म हो गया. शांति से चुनाव हो गए थे. हम ने एक बार फिर अखबारों में छपे बुद्धिजीवियों के लेखों और टैलीविजन चैनलों की बहस के मुताबिक कमजोर होते लोकतंत्र को वोट का ताकत से भरपूर कैप्सूल खिला दिया था. सब के अंदाजे, ऐक्जिट पोल और चुनाव से पहले होने वाली भविष्यवाणियां गलत साबित हो गई थीं. तमाम खबरिया चैनलों के मुताबिक हमारा यानी जनता का फैसला ही हमेशा की तरह सही साबित हुआ था. आगे चल कर भले ही सब उलटापुलटा हो जाए, आज तो लोकतंत्र की जीत हो गई.
इस जीत के असली हकदार हमारी यानी जनता की जयजयकार हो रही थी. जीते हुए उम्मीदवारों ने बड़े अदब से सिर झुका कर स्वीकारा और मन ही मन कहा, ‘5 साल बाद फिर मिलेंगे, अगर बीच में कोई गड़बड़ न हुई तो.’
और हारे हुए उम्मीदवारों ने ‘सब को देख लूंगा’ वाली भावना से छाती पर पत्थर रख लिया यानी सबकुछ अच्छा था. अमनचैन का माहौल हर जगह फैला हुआ था.
एक दिन की बात है. सुबह का समय था. मंदमंद प्रदूषित हवा चल रही थी. भौंरों की गुंजार की तरह आतीजाती गाडि़यों का शोर तेज होने लगा था. ऐसे खुशनुमा माहौल के बीच एक आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘भाई, जरा सुनना.’’
अभी मेरी सामाजिक हालत इतनी मजबूत नहीं हुई थी कि कोई भी इज्जत से ‘भाई’ कह कर पुकारे, इसलिए मैं ने अनसुना करते हुए कदम आगे बढ़ा दिए.
इतने में फिर से आवाज आई, ‘‘कब तक आम आदमी की तरह नजरें नीची कर के चलोगे, कभी ऊपर भी देख लिया करो.’’