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‘‘कभी तो संतुष्ट होना सीखो, मीना, कभी तो यह स्वीकार करो कि हम लाखोंकरोड़ों से अच्छा जीवन जी रहे हैं. मैं मानता हूं कि हम बहुत अमीर नहीं हैं, लेकिन इतने कंगाल भी नहीं हैं कि तुम्हें हर पल बस, रोना ही पड़े.’’

सदा की तरह मैं ने अपना आक्रोश निकाल तो दिया लेकिन जानता हूं, मेरा भाषण मीना के गले में आज भी कांटा बन कर चुभ गया होगा. क्या करूं मैं मीना का, समझ नहीं पाता हूं, आखिर कैसे उस के दिमाग में मैं यह सत्य बिठा पाऊं कि जीवन बस, हंसीखुशी का नाम है.

पिछले 3 सालों से मीना मेरी पत्नी है. उस की नसनस से वाकिफ हूं मैं. जो मिल गया उस की खुशी तो उस ने आज तक नहीं जताई, जो नहीं मिल पाया उस का अफसोस उसे सदा बना रहता है.

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मैं तो हर पल खुश रहना चाहता हूं. जीवन है ही कितना, सांस आए तो जीवन, न आए तो मिट्टी का ढेर. खुश होने को भी समय नहीं मिलता मुझे. और मीना, पता नहीं कैसे रोनेधोने को भी समय निकाल लेती है.

‘‘बचपन से ऐसी ही है मीना,’’ उस की मां ने कहा, ‘‘पता नहीं क्यों हर पल नाराज सी रहती है. जब देखो भड़क उठना उस के स्वभाव में ही है. हर इनसान का अपनाअपना स्वभाव है, क्या करें?’’

‘‘हां, और आप ने उसे कभी सुधारने की कोशिश भी नहीं की,’’ अजय ने उलाहना दिया, ‘‘बच्चे को सुधारना मातापिता का कर्तव्य है लेकिन आप ने उस की गलत आदतों को मान कर सिर्फ बढ़ावा ही दिया.’’

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