लेखिका- रेणु दीप
मनमौजी काली जब मन आता रानी को अपने निश्छल प्रेम की बूंदों से भिगो देता और मन आता तो दुत्कार देता. बेचारी रानी काली के स्वभाव से दुखी तो थी ही, साथ ही उस का फक्कड़पन उसे भीतर तक तोड़ देता. फिर भी जीवन पथ पर अकेली कठिनाइयों से जूझती रानी हर बार अपने ही दिल के हाथों हार जाती.
रविवार की सुबह मरीजों की चिंता कम रहती है. अत: सुबह टहलते हुए मैं रानी के घर की ओर चल दिया. वह एक शिशु रोगी के उपचार के बारे में कल मुझ से बात कर रही थी इसलिए सोचा कि आज उस बारे में रानी के साथ तसल्ली से बात हो जाएगी और काली के साथ बैठ कर मैं एक प्याला चाय भी पी लूंगा.
मैं काली के घर के दरवाजे पर थपकी देने ही वाला था कि घर के भीतर से आ रही काली की आवाज को सुन कर मेरे हाथ रुक गए.
‘‘रानी प्लीज, इस गजरे को यों बेकार मत करो, कितनी मेहनत से फूलों को चुन कर मैं ने मालिन से कह कर तुम्हारे लिए यह गजरा बनवाया है. बस, एक बार इसे पहन कर दिखा दो. आज बरसों बाद मन में पुरानी हसरत जागी है कि एक बार फिर तुम्हें फूलों के गजरे से सजा देखूं.
‘‘मैं तुम्हारे इस रूप को सदासदा के लिए अपनी आंखों में कैद कर लूंगा और जब हम 80 साल के हो जाएंगे तब मन की आंखों से मैं तुम्हारे इस सजेधजे रूप को देख कर खुश हो लूंगा.’’